६५६ बृहदारण्यकोपनिपद् स० भावार्थ । हे शिष्य ! वह विद्वान् जो धनधान्य से सम्पन्न हुये इन. तीनों लोकों को प्रतिग्रह में ग्रहण करता है, तो उसको उन सबका लेना उसके योग्यता से अधिक नहीं है, यानी वह किसी प्रकार से भी ऐसा प्रतिग्रह लेने पर दूपित नहीं होता है, क्योंकि उसका लिया हुआ प्रतिग्रह इस गायत्री यानी ( तत् सवितुर्वरेण्यम् ) के प्रथम पद के फल के बराबर होता है, और जो कुछ फल तीनों वेदों यानी ऋग्-यजुः-साम के जानने और उपासना करने से फल होता है, सोई प्रतिग्रह इस मन्त्र के द्वितीयपाद ( भर्गो देवस्य धीमहि ) की उपा- सना के फल के बराबर होता है, और जितने प्राणीसमूह है यानी जितने प्राणी हैं, उनको अपने वश में करने का जो प्रतिग्रह में मिले तो वह सव इस गायत्री के तृतीय पाद (धियो यो नः प्रचोदयात् ) की उपासना के फल के बरावर है, और जो इस गायत्री का चौथा पाद दर्शत परोरजा है, और जो सर्वत्र प्रकाशित होरहा है इस चतुर्थपाद की उपासना के फल के बराबर कौन दान संसार में होसकता है ॥ ६ ॥ मन्त्रः ७ तस्या उपस्थानं गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे । नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापदिति यं द्विष्यादसा- वस्मै कामो मा समृद्धीति वा न ईवास्मै स कामः समृ- ध्यते यस्मा एवमुपतिष्ठतेऽहमदः प्रापमिति वा ।। .
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