६५० वृहदारण्यकोपनिषद् स० तरह नहीं । समृध्यते-पूरी होती है। यस्मै जिसके लिये । एवम् इस प्रकार | उपतिष्ठते-ज्ञानी शाप देता है। वा-और । + शत्रोः-शत्रु के। अद: उत्तम अभीष्ट को। अहम्-मैं । प्रापम् प्राप्त होऊं। इति-ऐसा । + यःजो उपासक । उप- तिष्ठते-कहता है। + तस्य-उसके । कामा::मर मनोरथ । समृध्यन्ते-सिद्ध होते हैं। भावार्थ । हे शिष्य ! अब गायत्री के उपस्थान यानी प्रशंसा को कहते हैं । हे गायत्रि ! त्रैलोक्यरूप तेरा प्रथम चरण है, त्रि- द्यारूप तेरा.द्वितीयचरण है, प्राणादि रूप तेरा तृतीय चरण हैं और दर्शतरूप सवका प्रकाश करने वाला तंग चतुर्थ चरण है, यद्यपि तू इन सब गुणों करके परिपूर्ण है, तथापि वास्तव में तू पदरहित यानी निर्गुण है, क्योंकि तू किसी करके नहीं जानी जाती है, तेरे चौथे दर्शत प्रकाशमान पाद के लिये मेरा नमस्कार है, जो कोई मेरा पापिष्ठ शत्रु है उसकी अभिलाषा पूर्ण न हो किसी तरह से उप्तकी कामना पूर्ण न हो। इस गायत्री के उपासक के शाप देने से शत्रु की कामना सिद्ध नहीं होती है, और जब उपासक कहता है कि शत्रु के उत्तम अभीष्ट फल उसको न मिलकर मुझको मिलें तव उस उपासक के वे सत्र मनोरथ इच्छानुसार सिद्ध होते हैं ।।७।। मन्त्रः८ एतद्ध वै तज्जनको वैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच यन्नु हो तद्गायत्रीविदथा अथ कथई हस्तिभूतो वह- सीति मुख ह्यस्था सम्राएन विदांचकारेति होवाच तस्या अग्निरेव मुखं यदि हवा अपि वहिवाग्नावभ्यादधति .
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