अध्याय ६ ब्राह्मण १ ६७७ प्राणेन, वदन्तः, वाचा, पश्यन्तः, चक्षुषा; शृण्वन्तः, श्रोत्रेणं, प्रजायमानाः, रेतसी, एवम् , अजीविष्म, इति, प्रविवेश, ह, मनः ॥ अन्वय-पदार्थ । ह-तिसके पीछे । मना-मन । उच्चक्राम-शरीर से निकला। +च-और । तत्-वह । संवत्सरम्-एक वर्पतक । प्रोष्य-बाहर रह कर । आगत्य-फिर वापस आनकर । उवाचकहता भया कि । मत्-मेरे । ऋते-विना । जीवितुम् जीने में । कथम् कैसे । अशकत-तुम सव समर्थ होते भये ? । इति ऐसा । + श्रुत्वा-सुनकर । तेचे वागादि इन्द्रियां । ह-स्पष्ट । ऊचु:- कहने लगी कि । यथा-जैसे । मुग्धाः मूदलीग । मनसा-मन करके । अविद्वांसः न जानते हुये । प्राणेन-प्राण करके । प्राणन्तः जीते हुये । वाचावाणी करके । वदन्तः-बोलते हुये । चक्षुपा नेत्र करके । पश्यन्तः-देखते हुये । श्रोत्रेण- कान करके । शृण्वन्तः सुनते हुये । रेतसा-वीर्य करके । प्रजायमाना:संतान उत्पन्न करते हुये । + जीवन्ति जीते हैं एवम्-वैसे ही।+ वयम्-हम लोग। अजीविष्म-जीते रहे। इति इस प्रकार । + श्रुत्वा-उत्तर सुनकर । मनः मन । ह- भी। प्रविवेश-शरीर में प्रवेश करता भया । भावार्थ । इसके पीछे मन शरीर से निकला, और एक वर्ष पर्यन्त बाहर रहा, और फिर वापस आनकर कहने लगा कि तुम सव मुझ बिना कैसे जाते रहे ? यह सुनकर वे सब वागादि इन्द्रियां कहने लगी कि, जैसे मूढ़ पुरुष मन करके न जानते हुये, पर वाणी करके बोलते हुये, नेत्र करके देखते हुये, कान करके सुनते हुये, वीर्य करके संतान को उत्पन्न करते .
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६९१
दिखावट