पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७२५

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अध्याय ६ ब्राह्मण २ ७११ - ऋस्विज । सोमम् राजानम्-सोमलता रस को । + यज्ञ- सोमयज्ञ में । आप्याय + आप्याय=पी पी कर । * च- और । + अपक्षयम् तीण कर कर ।+ परस्परम् श्रापम में । इति= ऐसा । + वदन्तः-कहते हुये । आप्यायस्व-पियो पियो । श्रपक्षीयस्व-जबतक समाप्त न हो जाय । भक्षयन्ति: उपभोग करते हैं। + यदा-जय । तेपाम्-ठन कर्मियों का । तत्वह सोमलोकप्रापक कर्म । पर्यवैति-क्षीण हो जाता अथ-तब I+तेवे । इमम्-इस । एव-दृश्यमान । आकाशम् श्राकाश को । अभिनिष्पद्यन्ते प्राप्त होते हैं। आकाशात्- आकाश से । वायुम्नायु को । वायोबायु से । वृष्टिम्-वृष्टि को। वृऐः वृष्टि से । पृथिवीम् पृथिवी को । + अभिनिष्पद्यन्ते- श्राते हैं। + च-और फिर । तेवे। पृथिवीम् पृथिवी को। प्राप्य प्राप्त होकर । अन्नम्-अन्न । भवन्ति होते हैं। पुनः फिर । ते-वे। + अन्नभूताःअन्नभूत होते हुये । पुरुषाग्नौ- पुरुषरूपी अग्नि में। हृयन्ते-पाहुतिरूप से दिये जाते हैं। + पुनः फिर । ततः उस पुरुप में से । योषाग्नौ-नीरूपी अग्नि में । + ते-वे । + हयन्ते-आहुतिरूप से दिये जाते हैं। + च-फिर । लोकम् प्रति-लोक में भोगने के प्रति । उत्थायिनः अनुरागी होते हुये । जायन्ते-उत्पन्न होते हैं । + च-और । + कर्म-कर्म को । + अनुतिष्ठन्ते-करते हैं । एवम् एव-इसी तरह । + ते वे। अनुपरिवर्त्तन्ते बार बार लोकों में या योनियों में प्राप्त होते हैं। श्रथ और । येसो । एतौ पन्थानौ इन दक्षिण उत्तर मार्ग को । न-नहीं । विदुः मानते हैं यानी उपासना नहीं करते हैं। ते-वे । कीटा-कीड़े। पतङ्गाः पतिङ्ग । भवन्ति होते हैं । + च-ौर । यत्-जो कुछ । इदम् यह । दन्दशूकम्-मच्छरादियोनि है। ते वे। + भवन्ति होते हैं. । 1 ।