पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७२४

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. बृहदारण्यकोपनिपद् स० भवन्ति, ते, पुनः, पुरुषाग्नौ, हयन्ते, ततः, गोपाग्नी, जायन्ते, लोकान् , प्रति, उत्यायिनः, ते, एवम् , एव, अनुपरिवर्तन्ते, साथ, ये, एतौ, पन्थानौ, न, विदुः, ते, कीटाः, पतगाः, यत् , इदम् , दन्दशकम् ॥ अन्वय-पदार्थ । अथ-इसके उपरान्त । ये जो पुरुप । यशेन-यज्ञ करके । दानेन-दान करके । तपसा-तप करके । लोकान्-जोकों को। जयन्ति-जीतते हैं यानी प्राप्त होते हैं। तेन्थे ।+प्रथमम्- पहिले । धूमम्-धूमाभिमानी देवता के लोक अभिसंभवन्ति= जाते हैं। धृमात्-धूमाभिमानी देवता के लोक से । रात्रिम्-रानि अभिमानी देवता के लोक को + अभिसंभवन्ति-पास होते हैं। रात्र-राध्यमिमानी देवता के लोक से । अपक्षीयमाणपक्षम्-कृष्णपक्षाभिमानी देवता के लोक को। अभिसंमरन्ति-माते हैं। श्रपक्षीयमाणपक्षात् कृष्णपक्षाभिमानी देवता के लोक से 1 + तान्-उन । + पद- छह महीना अभिमानी देवत्ता के लोक को । + एति-प्रास होते हैं। यान्-जिनमें । आदित्यः सूर्य । दक्षिणा दक्षिणायन । एति-रहता है । + च-फिर । मासेभ्यः-छह महीनाभिमानी देवता से । पितृलोकम् पितृलोक को ।+ अभिसंभवन्ति प्राप्त होते हैं । पितृलोकात्-पितृलोक से। चन्द्रम् चन्द्रलोक को।+ सभिसंभवन्ति-प्राप्त होते हैं।चोर । तेन्थे । चन्द्रम् चन्द्रलोक को। प्राप्य-प्राप्त होकर । अन्नम्भोग्य । भवन्ति होते हैं । तत्र-उनकी उस अवस्था में । देवाः-देवता लोग । + एवम् वैसे ही। तत्रउस सोमलोक में । एनान् उनके साथ | + उपमुखते-उपभोग करते हैं यानी उनको कर्मानुसार भोग्य फल देते हैं। यथा जैसे । + ऋत्विजः-