.. ५८ वृहदारण्यकोपनिपद् स० यिका भी है। + समये-एक समय । चैकितायनयः चिकि- तायन का पुत्र । ब्रह्मदत्तः प्रदत्त । राजानम्-यज्ञ में सोम- लता के रस को । भक्षयन्-पीता हुधा । +इति-ऐसा । उवाच: बोला कि । + अहम् में । + अन्तवादी सत्यवादी । + स्याम होऊँ । + च-और । अयम् राजा-यह राजा मोम । त्यस्य-उस । +मे मेरे । मूर्धानम्-मस्तक को। विपातयात् गिरा देवे । यत्-पदि । इतः इस वाणीयुत प्राण के सिवाय। अन्येन-और किसी देवता की सहायता करके । +एप:3 यह । +अहम् मैं । अयास्यः प्रयास्य । आनिरसायनिरस । +ऋपीणाम्-किसी ऋपि के । + सोन्या में। उदगायत्- गान किया हो। चइस कहने के पीछे । साम्यही यास्य अङ्गिरस । वाचा-वाणी करके । चोर प्रागन-माण करके । एच हि इति-निस्सन्देह इस प्रकार । उदगायत्-गान करता काट भया। - भावार्थ। हे सौम्य ! जो कुछ ऊपर कहा गया है उसके विषय में एक आख्यायिका इस प्रकार कही जाती है, एक समय चिकितायन का पुत्र ब्रह्मदत्त यज्ञ में सोमलता के रस को पीता हुआ बोलता भया कि यदि में अयास्य अङ्गिरस ऋषि किसी यज्ञ विषे सिवाय वाणी और प्राण के उद्गीथ के गान में और किसी देवता की सहायता ली हो तो मैं असत्यवादी होऊँ, और मेरा मस्तक कटकर गिर पड़े, ऐसा कह करके वह अयास्य अङ्गिरस प्राणरूप उद्गाता वाणी और प्राण की सहा- यता करके उद्गीथ का गान करता भया, और श्रुति भो कहती है कि उसने इस यज्ञ में भी वाणी और प्राण की सहायता करके उस उद्गीथ का गान किया ॥ २४ ॥ -
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