अध्याय ६ ब्राह्मण ३ ७२७ मधुर दुग्ध देनेवाली होवें, भूलोक और भुवौंफ को सुख पहुँचाते हुये स्वलोक को सुखी करे | + एनम्-इस व्याहृति को । + उक्त्वा कहकर । + तृतीयम्-मन्थ के तीसरे । + ग्रासम्- ग्रास को ।+ आचामति खाता है । + च-फिर । सर्वाम् सा- वित्रीम् च मधुमतीः इदम् सर्वम् अहम् एव भूयासम् भूः भुवः स्वःस्वाहा इतिहे परमात्मन् ! यह सब हम होजावें ऐसी आप कृपा करें, हे जगनिवास, परमात्मन् ! अापके उस वर्णनीय तेज का ध्यान हम सय अपने अन्तःकरण में करें जो हमारे सब शुभ कमों और बुद्धि की पवित्रता की तरफ प्रेरणा करे । + इति- ऐसा + पठित्या-पड़कर । + अवशिष्टम्बचे हुये मन्थ को । + भक्षयेत्-खावे । अन्ततः-अन्त में यानी चारों ग्रास के बाद । श्रावम्याचमन कर । पारणा-हाथ । प्रक्षाल्य-धोकर । अग्निम् अग्नि के । जघनेन पीछे । प्राशिरा: पूर्व की तरफ शिर करके । संविशति-सोवे । प्रातः-दूसरे दिन प्रातःकाल । प्रादित्यम् सूर्य का । उपतिष्ठते-उपस्थान यानी प्रार्थना करे । + आदित्य हे सूर्य ! । त्वम्-तू । दिशाम्-दिशाओं में । एक- पुण्डरीकम् -अखण्ड श्रेष्ठ कमलवत् । असि-स्थित है । अहम् मैं भी। मनुष्याणाम् मनुष्यों में । एकपुण्डरीकम्-अखण्ड श्रेष्ट कमलवत् प्रिय । भूयासम् इति-होऊ । ततः उपस्थान के उपरान्त । यथेतम्-जिस मार्ग से गया था उसी मार्ग से । एत्य यज्ञमण्डप में प्राकर । अग्निम् अग्नि के । जघनेन= पीछे । श्रासीन: बैठा हुया । वंशम्-वंश ब्राह्मण का । जपति- जप करें। भावार्थ: हे सौम्य ! जिस मन्य को ऋत्विज् लोग हाथ में लिये रहें उसको चार ग्रास करके नीचे लिखे हुये मन्त्रों को पढ़कर
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