७४४ वृहदारण्यकोपनिपद् स० अग्निर्षियाः, यथास्थानम् , कल्पन्ताम् , इति, अनामि- काङ्गुष्ठाभ्याम् , आदाय, अन्तरेण, स्तनौ, वा, भ्रुवो, वा, निमृज्यात् ।। अन्वय-पदार्थ। तत्=निकले हुये उस वीर्य को। अभिमृशेत् स्पर्श करे । वा और । मन्त्रयेत-उसके उपर हाथ रख कर मन्त्र पढ़े कि । यत्-तो। अद्य-माज । मेन्मेरा । रेतः वीर्य । पृथिवीम्= पृथिवी पर । अस्कान्त्सीत्-गिरता भया । यत्-जो वीर्य । ओषधीः चोपधी पर । अपसरत्-गिरा है। यत्-जो वीर्य । अपः-जल में । अपसरत्-गिरा है । तत्-उसी । इदम्-इस रेताबीर्य को । अहम् मैं । आददे-ग्रहण करता हूँ। पुनः फिर । तत्-त्रही। इन्द्रियम् इन्द्रिय शनि । माम्-मुझको । एतु-प्रास होवे । पुनः फिर । + तत्वही। तेज-कान्ति । + एतु-मुझको प्राप्त होवे । पुनः फिर । तत्वही । भर्ग:- ज्ञान । एतु मुझको मिले। + च-और । अग्निर्धिष्ण्या- अग्नि में रहनेवाले देवता । तत्-उसा वीर्य को। यथास्था- नम्न्यथोचित स्थान पर। कल्पन्ताम्-रक्खें। इति=ऐसा । + उक्त्वा कह कर । अनामिकाङ्गुष्ठाभ्याम्-अंगुष्ठ और अना- मिका करके । श्रादाय वीर्य को उठाकर । स्तनौ दोनों स्तनों के बीच में । वा=और । वो दोनों भौहों के । अन्तरेण-बीच में । निमृज्यात् मार्जन करे । भावार्थ । हे सौम्य ! जिस पुरुष का वीर्य स्खलित होगया है, उसको चाहिये कि उस गिरे हुये वीर्य को स्पर्श करे, और उसके ऊपर हाय रख कर मन्त्र पढ़े कि जो आज मेरा वीर्य
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