अध्याय ६ ब्राह्मण ४ ७४५ पृथिवी पर गिर पड़ा है, और जो वीर्य ओषधी पर गिर पड़ा है, जो वीर्य जल में गिर पड़ा है, उस वीर्य को मैं ग्रहण करता हूं, और फिर उसके द्वारा वही इन्द्रियशक्ति मुझको प्राप्त होवे, वही - कान्ति मुझ को प्राप्त होवे, वही ज्ञान मुझको प्राप्त होवे, और अग्नि आदि देवता उस मेरे वीर्य को यथो- चित स्थान पर स्थापित करें, ऐसा कह कर उसको चाहिये कि उस गिरे हुये वीर्य को अंगुष्ठ और अनामिका से उठा कर दोनों स्तनों के बीच में अथवा दोनों भौहों के बीच में लगावे ॥ ५॥ मन्त्रः ६ अथ यादक आत्मानं पश्येत्तदभिमन्त्रयेत मयि तेज इन्द्रियं यशो द्रविण सुकृतमिति श्रीह वा एषा स्त्रीणां यन्मलाद्वासास्तस्मान्मलोद्वाससं यशश्विनीमभिक्रम्यो- पमन्त्रयेत ॥ पदच्छेदः। अथ, यदि, उदके, आत्मानम् , पश्येत् , तत् , अभिमन्त्र- येत , मयि, तेजः, इन्द्रियम्, यशः, द्रविणम्, सुकृतम्, इति, श्रीः, ह, वा, एषा, स्त्रीणाम् , यत् , मलोद्वासाः, तस्मात् , मलोद्वाससम् , यशश्विनीम् , अभिक्रम्य, उपमन्त्रयेत् ।। अन्वय-पदार्थ । अथ और । यदि जो। उदके जल में। आत्मानम्- अपने गिरते हुये वीर्य को । + परिपश्येत्-देखे तो । तत्-उस जल को। अभिमन्त्रयेत-अभिमन्त्रण करे यह कहता हुआ कि ।
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