अध्याय ६ ब्राह्मण ४ ७७१ अन्वय-पदार्थ । सोप्यन्तीम प्रसवोन्मुखी स्त्री को। + मन्त्रम्-नीचे का + पठन-पढ़ता हुआ । अद्भिः अल करके । अभ्युक्षति=सिजम करे । यथा-जैसे । वायुवायु । पुष्करणीम् ताल के जल को । सर्वतः सब ओर से । समिजयति-चलायमान करता है । एवा-इसी तरह । ते= तेरा । गर्भ: गर्भ । एजतु चलायमान होचे । + च-और । जरायुणा=गर्भवेष्टन चर्म के । सह साथ । अवैतुम्बाहर निकले । अयम्-यह । इन्द्रस्य-प्राण के नीचे जाने का । व्रजः मार्ग । सार्गलः सपरिश्रयः कृतः गर्भ का प्रतिवन्धक है यानी गर्भ गिरने नहीं देता।+ तत्-सो । इन्द्र हे प्राण ! । तम्-उस मार्ग को। प्राप्य-पाकर । गर्भण-गर्भ के । सह-साथ । निर्जहि-निकल था । + चौर । सावराम्- गर्भ की थैली को । + निर्गमय-निकाल ला। भावार्थ । हे सौम्य ! प्रसवोन्मुखी स्त्री को नीचे लिखे मन्त्र को पढ़ता हुआ जल से सिञ्चन करे "यथा वायुः पुष्करणी समिङ्गयति सर्वतः एवा ते गर्भ एजतु सहावैतु जरायुणा इन्द्र- स्यायं व्रजः कृतः सार्गलः सपरिश्रयः तमिन्द्र निजीह गर्भेण सावरां सहेति' जिसका अर्थ यह है कि जैसे ताल के जल को वायु सब ओर चलायमान करता है उसी तरह से हे स्त्री ! तेरा गर्भ भी चलायमान होवे, और वह गर्भवेष्टन चर्म के साथ बाहर निकल आये और जो प्राण के नीचे जाने का मार्ग है, वह गर्भ का प्रतिबन्धक होवे यानी गर्भ को गिरने न देवे, हे प्राण ! तू उस मार्ग को पाकर उस गर्भ के साथ निकल आ, और अपने साथ गर्भ की थैली को निकाल ला ॥ २३ ॥
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