कहा है; क्योंकि मित्र अपना आत्मा नहीं किन्तु आत्मासे भी अधिक है। मनुष्य का आयुष्य नियमित है। अपने इस हेतु सिद्ध होने के पहले ही बहुधा मनुष्य काल कवल हो जाताहै। हमारे पीछे हमारी सन्तति की क्या दशा होगी। जो काम हमने आरम्भ किया है वह कैसे समाप्त होगा"। ऐसी ऐसी अनेक प्रकारकी चिन्ता मनुष्य के मनको पीडित किया करती हैं। परन्तु यदि मनुष्य के कोई सन्मित्र हुआ, तो उसको इस बात का विश्वास रहता है, कि उसके मरने के अनन्तर उसकी इच्छित बातों को उसका मित्र पूरा करैगा। अभिलषित बातों की पूर्त्तिके विषय में, मित्र के होनेसे, मनुष्य मानो दो आत्माओं में विभक्त होजाता है। मनुष्यके एकही देह है और वह एकही स्थान में स्थित रहता है; परन्तु मित्रहोनेसे यह मानना पड़ता है कि मनुष्य संसारके सारे काम करने में समर्थ होता है; क्योंकि जो काम वह स्वयमेव नहीं कर सकता वह वह अपने मित्रसे कराता है; और मित्र अपनाही आत्मा है। ऐसी कितनीही बातैं हैं, जो मनुष्य लज्जा और संकोचवश होकर स्वयं नहीं कह सकता, अथवा स्वयं नहीं कर सकता। अपने मुखसे अपनेहीं गुण मनुष्य मर्य्यादशीलतासेभी नहीं कह सकता, फिर प्रशंसापूर्वक कहने की बातही दूर रही। कभी कभी याचना और विनय करनेका भी साहस मनुष्यको नहीं होता। एक नहीं ऐसी अनेक बातैं हैं। अपने मुखसे ऐसी ऐसी बातैं कहना लज्जास्पद है; परन्तु यही बातैं मित्रके मुंख से निकलने पर उलटी शोभा देती हैं। फिर मनुष्यके अनेक सम्बन्धी होतेहैं; उनका सम्बन्ध वह तोड़ नहीं सकता। लड़केसे पिताके समान बोलना पड़ता है; स्त्रीसे पतिके समान बोलना पड़ता है; शत्रुसे शत्रुके समान बोलना पड़ता है। जिससे जैसा सम्बन्ध होता है उसके साथ उसके सम्बन्धके अनुसार भाषण करना पड़ता
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बेंकन-विचाररत्नावली।