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बेकन-विचाररत्नावली।

अनेक कष्ट और अनेक आपत्तियोंको सहन करनेपर जिनका अभ्युदय होता है वे मनुष्य भी औंरो का मत्सर करने लगते हैं। दूसरे की सहज प्राप्त सम्पत्ति को वे नहीं देख सकते! "हमको इतना परिश्रम उठाना पड़ा, परंतु ये लोग बिना श्रमही के इतनी योग्यता को पहुँच गए" इस प्रकारकी भावना मनमें करके, वे दूसरोंको दुःखित देख अपने दुःखोंके भार को मानों हलका करनेका यत्न करते हैं।

चंचलवृत्ति होंने तथा अपने को बहुत कुछ समझने के कारण, जो मनुष्य, अनेक विषयों में हस्ताक्षेप करके, अपनाने पुण्य दिखलाना चाहते हैं वे मत्सरवान् होते हैं। कारण यह है, कि सभी बातों में प्रवीणता तो आती नहीं पल्लव ग्रहिता मात्र आजाती है। अतः ऐसे मनुष्योंमें औरोंकी अपेक्षा, किसी विषय में आधिक्यता तो नहीं उलटी न्यूनता पाई जाती है। इसीसे वे दूसरों का मत्सर करते हैं। एड्रियन राजा का स्वभाव ऐसाही था। कवित्व, चित्रकला और शिल्पशास्त्रमें प्रावीण्य प्राप्त करनेको उसको बलवती स्पृहा थी; इसीसे कवि चित्रकार और शिल्पियों की वह अत्यन्त असूया करता था।

आप्तजन, सहाध्यायी और सह कर्म्मचारी लोग, अपने समान शीलवालों की पदोन्नति देखकर अधिक मत्सर करने लगते हैं। जो हमारे समकक्ष थे वे हमसे बढ़गए यह बात उनको खलती है, क्योंकि इससे उनकी अयोग्यता सिद्ध होती है। इसका उनको वारंवार स्मरण होता है, और सब लोगों को यह बात विदित भी हो जाती है। इस रहस्य के विदित होजाने और सब ओर तद्विषयक चर्चा होने से मत्सर दूना होजाता है।

यहां तक उन लोगों का विचार कियागया जो साधारणतः असूयारत होते हैं। अब यह देखना है कि कौन किसकी न्यूनाधिक असूया करते हैं।