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बेकन-विचाररत्नावली।


क्रम क्रमसे जिस मनुष्यकी अति वृद्धि होतीहै, उसका लोग उतना मत्सर नहीं करते जितना वे उस पुरुष का करतेहैं, जो एकही उड्डान में प्रतिष्ठाके शिखरपर पहुँच जाता है।

जो लोग लंबे लंबे प्रवास करके, अथवा नाना प्रकारके दुःख और संकष्ट सहन करके उच्च पद पाते हैं उनका भी बहुत कम मत्सर होता है। मनुष्य समझते हैं कि प्रतिष्ठा पाने के लिये उन लोगोंको अनेक कष्ट सहने पड़े हैं। इसी लिए मनुष्योंको उनपर दया आती है। मत्सर रूप रोगकी दयारूप एक महौषधि है। यही कारण है कि गंभीर और शान्तस्वभावके राजकीय पुरुषोंका जब अभ्युदय होताहै तब वे मुखसे सदैव दुःखोद्गार निकाला करते हैं, और वारंवार यही कहा करते हैं कि हमको इस स्थिति में अतिशय कष्ट है; इस जीनेसे मरजाना अच्छा है; इत्यादि। ऐसे ऐसे उद्गार, उनकी यथार्थ दशाके सूचक नहीं होते, तथापि वे लोग उनको इस लिए प्रयोग किया करते हैं जिसमें कोई उनका मत्सर न करैं। यह सिद्धान्त केवल उन्हीं लोगोंके विषयमें चरितार्थ हो सकता है जो काम काजका भार ढूंढ ढूंढ कर स्वयमेव अपने सिरपर लादते हैं। कारण यह है कि महत्वाकांक्षाके वशीभूत होकर सारा काम अपनेहीं ओर खींच लेनेसे मनुष्यका जितना मत्सर होता है उतना और कोई बात करने से नहीं होता। इसी भांति, यथोचित अधिकार देकर, अपने आधीनस्थ लोगोंकी मान मर्यादा को रक्षित रखनेसे एक वरिष्ठ अधिकारीका जितना कम मत्सर होता है उतना और किसी कारणसे नहीं होता क्योंकि कनिष्ठ अधिकारियोंको अपने अपने अधिकार पर अधिष्ठित देख लोगोंकी दृष्टि वरिष्ठ अधिकारी तक कम पहुँचतीहै।

अभ्युदय होने पर जो लोग औद्धत्य और गर्विष्ठता का व्यवहार करते हैं उनका सबसे अधिक मत्सर होता है। अनेक प्रकार के बाह्याडम्बरों का प्रयोग करके और अपनी स्वर्धा करनेवालों का मान