शास्त्रकी आज्ञानुसार "प्राचीन मार्ग में खड़े होकर, हम लोगोंको, अपने चारों ओर देखना चाहिए; तदनन्तर सीधे और सच्चे मार्गका पता लगाकर उसीसे गमन करना चाहिए।
विश्वं[१] विलोक्याप्यखिलं तदीय-
कर्तारमीशं नहि मन्यते यः ॥
अहं हि जातो जनकं विनेति
न भाषते विज्ञवरः कथं सः ॥ १ ॥
स्फुट।
यह बात माननेकी अपेक्षा कि इस संसारचक्रका कोई भी नायक नहीं, मुसल्मानोंके अलकुरान, यहूदियोंके तालमूद और रोमन कैथलिक सम्प्रदायवाले क्रिश्चियन लोगोंके लिजेंड नामक ग्रन्थों में जो, नाना प्रकारकी साधु सन्त सम्बन्धी कहानियां भरी हैं, उन सबको सचमान लेनेके लिए हम प्रस्तुत हैं। ईश्वरकी सामान्यसे भी सामान्य प्राकृतिक लीलायें उसके अस्तित्वकी साक्षी दे रही हैं। इसी लिए ईश्वरने निरीश्वर मतवालोंको अपने अस्तित्वका प्रमाण देनेके लिए अद्भुत अद्भुत चमत्कार दिखलानेके आडम्बरकी योजना नहीं की। जो मनुष्य अल्पज्ञ "ज्ञानलवदुर्विदग्ध" हैं वही विशेष करके निरीश्वरमतकी ओर झुकते हैं। जो अच्छे ज्ञानवान् हैं उनका मन धर्म्मको छोड़ अधर्म्मका कभी आश्रय नहीं लेता। मनुष्य का मन, जब तक, ब्राह्मसृष्टि की कार्य कारण रूप गौण बातों का विचार करता है, तबतक, वह, कभी कभी, उन्हीं की मीमांसा में निमग्न रहजाताहै; उनके आगे जो इस विश्व का आदि कारण है, वहां तक उसकी पहुँचही नहीं होती। परन्तु, जब, इन
- ↑ इस विस्तृत विश्वमंडलको देखकर भी–इसका कर्ता ईश्वरहै–यह जो मनुष्य नहीं मानता, वह विज्ञवर ऐसा क्यों नहीं कहता कि मैं बिना बापके पैदा होगया।