पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/१२९

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बेंकन-विचाररत्नावली।


कार्यकारणों की श्रृंखला उसके दृग्गोचर होती है, और एक का सम्बन्ध दूसरे से और दूसरे का तीसरे से देखते देखते जब वह इस कार्यकारण मालिका के छोर तक पहुँच जाता है, तब ईश्वर का आस्तित्व अंगीकार किए बिना वह नहीं रह सकता। * * * * *

धर्म्मग्रन्थ में यह लिखाहै, कि मूर्ख मनुष्य अपने मन में कहा करता है, कि ईश्वर नहीं है। परन्तु यह कहीं नहीं लिखा, कि ईश्वरका न होना उसका मन स्वीकार करताहै। इससे यह फलितार्थ निकलता है, कि अपने मन को समझानेके लिए चाहै कोई, "ईश्वर नहीं है," "ईश्वर नहीं है" इस प्रकार का घोष किया करै, परन्तु इससे यह प्रमाणित नहीं होता, कि उसका मन इस सिद्धान्त को ग्रहण करता है और तदनुरूप व्यवहार करने के लिए वह सिद्ध रहता है। यदि ईश्वर न होता तो उन लोगोंको छोंडकर जिनको कुछ लाभ हुआ होता और कोई यह न कहता कि ईश्वर नहीं है। मनुष्य के ओष्ठोंही में निरीश्वर मत वास करता है; हदय में नहीं। इसीसे निरीश्वर वादी अपने मत के विषय में सदैवही वाद विवाद किया करते हैं; मानो अपने मतकी सत्यता का उनको स्वयंही निश्चय नहीं रहता; और निश्चय न रहने से मानौं दूसरे की अनुमति ग्रहण करके उसे वे पुष्ट करना चाहते हैं। यहां तक, कि जैसे और सम्प्रदायवाले शिष्य ढूंढा करते हैं वैसेही निरीश्वर वादी भी अपना शिष्यसमुदाय बढ़ाने के यत्न में रहते हैं। सबसे अधिक आश्चर्यकी बात तो यह है कि निरीश्वर वादी लोग अनेक कष्ट सहते हैं परन्तु ईश्वरका अस्तित्व नहीं अंगीकार करते। यदि उनकी धारणा सत्य सत्य यही है कि ईश्वरही नहीं है, तो फिर, हम नहीं जानते, वे इतना दुःख व्यर्थ क्यों उठाते हैं? "महात्मा हैं परन्तु सांसारिक कार्योंको वे आदर दृष्टि से नहीं देखते, वे सबसे निरालेही रहते हैं,