पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१३२)
बेंकन-विचाररत्नावली।


कल्पना किया है। अतः इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि औरोंका चित्र खींचनेमें कहीं अपना नमूना न टूट जावै। इसका अभिप्राय यह है कि दूसरेका हित करनेमें अपने हितकी ओर दुर्लक्ष्य न करना चाहिए। एक महात्मासे किसीने मोक्ष होनेका उपाय पूंछा। उसने कहा,–"जो कुछ तेरे पास हो उसे बेंचकर दीनोंको देडाल,और मेरे साथ चल, परन्तु मेरे साथ चलनेको यदि तू पूर्णतया कटिबद्ध हो तभी ऐसा कर, नहीं तो कोई आवश्यकता नहीं; क्यों कि यदि तुझे यह विश्वास हो, कि विरक्त होकर भी तू उतनाहीं परोपकारकर सकैगा जितना, गृहस्थाश्रममें, धनकी सहायतासे करना सम्भव है, तभी तुझे निर्धनता स्वीकार करनी चाहिए। यदि तेरा निश्चय दृढ न होगा तो तू मानो प्रवाहको बहता बनाये रखने के लिए पानी देते देते पानी का सोतही सुखाडालेगा"।

मनुष्य में, सदसद्विचार शक्तिही के कारण, सौजन्य और परोपकार बुद्धि नहीं उद्भूत होती। किसी किसी में ये सद्गुण स्वाभाविक होते हैं। जिस प्रकार किसी किसी में, ये गुण स्वभाव सिद्ध होते हैं उसी प्रकार किसी किसी में, इनके प्रतिकूल दुर्गण भी स्वभाव सिद्ध होते हैं। दूसरे प्रकारके लोग स्वभावहीसे कुटिल होते हैं। कौटिल्य वृत्तिकी मात्रा कम होनेसे मनुष्य औरों का विरोध करने लगते हैं; उनके काममें विघ्न डालते है; हठ करते हैं; किसी का कहना नहीं मानते इत्यादि। परन्तु कौटिल्य वृत्तिकी मात्रा अधिक होनेसे वे स्पष्टतया मत्सर करने लगते हैं और हर प्रयत्न से औरौं को हानि पहुँचाते हैं, दूसरों को दुःखित देख, ऐसे मनुष्यों को आनन्द होताहै; इतनाहीं नहीं किन्तु दूसरे के दुःखको अधिक गरुवा करने के लिए भी ये प्रयत्न करते हैं। अपने स्वामी के व्रण को जीभसे चाट कर उसे अच्छा करने की उत्सुकता व्यक्त करने वाले कुत्तों के जैसा भी