निकलस मैचियाव्यलको तो इसमें इतना विश्वास था कि उसने स्पष्टाक्षरोंमें यह लिख दिया है कि क्रिश्चियन धर्म्मने अपने अनेक सत्स्वभाव और दयालु अनुगामियोंको क्रूर और अन्यायी जनोंके फंदे में फंसाया है। यह उसने इस लिए कहा है; क्योंकि दयाशीलता[१]को जितना महत्व क्रिश्चियन धर्म्ममें दिया गया है, उतना और किसी धर्म्म पन्थ अथवा मतमें नहीं दियागया। अतएव मनुष्यको चाहिए कि वह इस बातका सदैव विचार रक्खै कि अधिक दयाशील होनेसे क्या बनता है और क्या बिगड़ता है; तथा उससे क्या हानि है और क्या लाभ है? यदि दया दिखलानेका परिणाम बुरा होता हो तो उससे बचना चाहिए। दूसरोंका कल्याण करनेके लिए दत्तचित्त होना उचित है, परन्तु उनके बाहरी स्वरूप और आडम्बरको देखकर उनके फंदेमें फंसना अच्छा नहीं। दूसरोंकी मीठी मीठी बातोंमें सहसा न आजाना चाहिए। ईसापके कथनानुसार मुर्गेको हीरा मत दो। ज्वारका एक दाना देनेसे वह अधिक प्रसन्न और सुखी होगा। परोपकार करने और सौजन्य दिखलानेमें ईश्वरका अनुकरण करना चाहिए। न्यायी और अन्यायी–सभीके उपयोगके लिए ईश्वर पानी बरसाता है और सूर्यको प्रकाशित करता है; परन्तु सम्पत्ति सबको वह बराबर नहीं देता और न अधिकार तथा सद्गुणरूपी सूर्यही सब पर समान भावसे प्रकाशित करता। सामान्य बातों में सब पर सदृश दया करनी चाहिए; परन्तु विशेष विशेष बातोंमें पात्रापात्रका विचार रखना उचित है। ईश्वरने आत्मप्रीतिको नमूना कल्पना किया है और जन प्रीतिको उस नमूनके आधार पर बनाया हुआ चित्र
- ↑ डाक्टरों और विद्वानों की बात जाने दीजिए, हमारे यहां की स्त्रियां और बालक भी तुलसी दासजीके इस दोहे को जानते हैं:–"तुलसी दया न छोड़िए, जब लगि घटमें प्रान"। परन्तु इटली के डाक्टर साहब इस बात को क्या जानैं।