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बेकन-विचाररत्नावली।
त्वरा ५.

अत्यावश्यमनावश्यं[१] क्रमात्कार्य समाचरेत्।
प्राक्पश्र्वाद्द्राग्विलम्बेन प्राप्तं कार्य तु बुद्धिमान्॥

शुक्रनीति।

औरोंको दिखानेके लिये अकारण त्वरा करनेसे कार्यको अतिशय हानि पहुँचती है। इस प्रकारकी त्वरा उस पाचन क्रियाके समान समझनी चाहिये जिसे वैद्य लोग भस्मक कहते हैं अर्थात् जिसके कारण उचित समयके पहिलेही आमाशयमें जातेही जाते अन्न पच जाता है। ऐसी क्रियासे शरीर अपक्व रससे परिपूर्ण होजाता है और अनेक रोगोंके गुप्तबीज उत्पन्न होते हैं। इसलिये त्वराका अनुमान अधिक देरतक बैठकर कोई कार्य करनेसे न करना चाहिये, किन्तु यथार्थमें कार्य कितना हुआ इसका विचार करके करना चाहिये।

दौड़नेमें जैसे लम्बे लम्बे फाल धरने अथवा ऊँची ऊँची छलांग भरनेसे त्वरा नहीं होती वैसेही कार्यमें भी है। एक बारही बहुतसे कार्यका बोझा उठानेसे नहीं, किन्तु नियमानुसार थोड़ा थोड़ा करनेसे वह शीघ्र निपटता है। कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो दूसरोंको अपनी त्वरा दिखानेके लिये किसी भाँति झटपट कामको पूरा करदेते हैं, अथवा किसी युक्तिद्वारा पूरा होजानेकासा भाव प्रकट करते हैं; परन्तु कार्यको हस्तगत करके शीघ्रताके साथ पूर्ण करना एक बात है और उसे काटछाँटके कम करदेना दूसरी बात है। बहुतसे काम ऐसे हैं जिनके करनेमें देर लगती है। ऐसी दशामें काम करनेके लिये कई बार बैठना पड़ता है। परन्तु यदि प्रति बैठक में कुछ काम कम करके त्वरा की जाय तो काममें अवश्यमेव बाधा आती है और वह भली

भाँति नहीं होता। हमारा एक बुद्धिमान् मित्र था। लोगोंको काममें


  1. काम पड़नेपर बुद्धिमान् को चाहिये कि, जो अत्यावश्यक है वह काम तुरन्तही करडालै, जो तत्काल अनावश्यक है उसे पीछेसे यथावकाश करै।