है, इसका ठीक ठीक हिसाब समझलेना चाहिये। जिसको एक विषयमें विशेष व्यय करनापड़ता हो उसे चाहिये कि, वह किसी अन्य विषयमें कम व्ययकरै; जैसे यदि खाने पीनेमें अधिक पैसा उठता हो तो कपड़े लत्ते बनाने में कमी करनी चाहिये। इष्ट मित्रोंके सन्मानमें यदि विशेष व्यय करनेकी आवश्यकता पड़ती हो तो गाड़ी घोड़े रखनेमें कम व्यय करना चाहिये; इत्यादि। कारण यह है कि जो पुरुष सभी कामोंमें बेहिसाब व्यय करताहै वह अवश्यमेव कुछ दिनमें निर्धन होनेसे नहीं बचता।
जिसे अपनी सम्पत्ति ऋणसे मुक्त करानीहो उसे न तो बहुत शीघ्रता करनी चाहिये और न बहुतविलम्बही करना चाहिये; क्योंकि शीघ्रतासे उतनीही हानि होनेकी सम्भावना रहतीहै जितनी विलम्ब करने से रहती है अर्थात् बेचने में त्वरा करनेसे जो आधा तिहाई मूल्य मिलेगा उसे लेलेना और देरकरके ब्याज बढ़ने देना दोनों बातें समान हानिकारकहैं। इसके अतिरिक्त जो मनुष्य झटपट ऋणमुक्त होजाता है उसे फिरभी ऋणग्रस्त होनेका डर रहताहै; क्योंकि ऋण होजानेसे उसे पूर्ववत् अनिष्ट व्यवहारकरनेका साहस आजाताहै। परन्तु जो मनुष्य क्रम क्रमसे अपना ऋण चुकाता है, समझबूझकर व्यय करना उसका स्वाभाविक धर्म होजाताहै, जिससे उसके मन और सम्पत्ति दोनों को लाभ पहुँचता है।
गईहुई सम्पत्तिको पुनरपि प्राप्तकरनेकी जिसे इच्छाहै उसे छोटी छोटी बातोंकी ओरभी दृष्टि देनी चाहिये। सत्य तो यह है कि, थोड़े लाभके लिये हाथ उठानेकी अपेक्षा छोटे मोटे व्ययके कम करदेनेमें विशेष भूषण है। एकबार आरम्भ होजानेसे जो सदैव व्यय करना पड़ता है उसके विषयमें मनुष्यको अधिक सचेत रहना चाहिये। परन्तु एक बार करके जिस व्ययको पुनः करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती उसमें उदारता भी दिखाई तो चिन्ता नहीं।