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बेकन-विचाररत्नावली।


उपयोग करना एक प्रकार का विकार है; और सभी काम में शास्त्रानुसार वर्तन करने जाना विद्वान् होकर भी अपनी व्यवहारशून्यवृत्ति को दिखाना है।

विद्याभ्यास से मनुष्य के स्वाभाविक गुण पूर्णता को पहुँच जाते हैं और अनुभव से स्वयं विद्याभ्यास पूर्णता को पहुँचता है; क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि स्वयंभू अर्थात् आपही आप उठानेवाले पौधों के समान है। इसप्रकार के पौधों को छाँटने से जैसे वे अधिकाधिक बढ़ते और बलिष्ठ होते हैं वैसेही स्वाभाविक बुद्धि में विद्याकी कलम लगाने से वह विशेष प्रौढ़ता को धारण करती है। विद्याध्ययन से नानाप्रकार के नियम विदित होते हैं यह सत्य है तथापि किस नियम को कहाँ और कैसे काममें लाना चाहिये, यह अनुभवही के प्रतापसे समझ में आता है। कपटी लोग विद्याध्ययन का तिरस्कार करते हैं और बुद्धिमान् लोग उसको उपयोग में लाते हैं। विद्या का उपयोग कैसे करना चाहिये यह बात केवल अध्ययनहीं से नहीं जानी जाती। इसके जानने के लिये विद्या के बाहर बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है; क्योंकि विद्या का विकास अनुभव से होता है। अतः उसके उपयोग में लाने के लिये अनुभव प्राप्त करना परमावश्यक है।

दूसरे के साथ भाषण करने में उसके मत का खण्डन करके उसे कुंठित करने के लिये पुस्तकैं न अवलोकन करना चाहिये। किंवा जो कुछ इसमें लिखा है वह सभी सत्य और स्वतः प्रमाण है, इस प्रकार श्रद्धापूर्वक विश्वास उत्पन्न करने के लिये अथवा वार्तालाप के निमित्त कोई विषय ढूँढ़ने के लिये भी कभी पुस्तकावलोकन न करना चाहिये। उनको पढ़कर तद्गत विषयों के सत्यासत्य का निर्णय करने और अपनी विचारशक्ति को बढ़ानेही के लिये पुस्तकैं देखना उचित है। कुछ पुस्तकों को केवल स्वाद लेकर रखदेना चाहिये; कुछ को समग्र निगलजाना चाहिये; और कुछ-दो चार-को, सावकाश, धीरे धीरे, चर्वण करके पचाजाना चाहिये। अर्थात