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बेकन-विचाररत्नावली।


प्रश्न का उत्तर देने में चित्त यदि किंचित्मात्र भी कहीं इधर उधर चलाजावेगा तो उसे उस प्रश्न को आदि से पुनार्वार हल करना पड़ेगा। जिनकी विवेचक शक्ति ठीक नहीं है अतः जो विषयों का पृथक्करण भली भाँति नहीं कर सकते उनको "स्कूलमॅन" के ग्रन्थ (व्यवहार दर्शन की टीका) पढ़ने चाहिये; क्योंकि उनमें लिखनवालों ने पूरी पूरी बाल की खाल निकाली है। जिनको कईबार वही बात नये नये प्रकार पर कहनी नहीं आती अथवा जो लोग एकबात का समर्थन करने के लिये दूसरी बात का प्रमाण तत्काल नहीं देसकते उनको वकीलोंके अभियोग सम्बन्धी लेख इत्यादि देखने चाहिये। इसप्रकार प्रत्येक मानसिक विकारको दूर करने के लिये उचित उपाय होसकते हैं।


मत्यु ७.

मरणं[१] प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधैः।
क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन्यदि जन्तुर्ननु लाभवानसौ॥

रघुवंश।

लड़कोंको अँधेरे में जाने से जैसे डर लगताहै; मनुष्यको वैसेही मृत्युसे डर लगताहै। और जिसप्रकार लड़कोंका वह स्वाभाविक डर कथा कहानी आदिके सुनने से बढ़ता है उसी प्रकार मनुष्योंका भी डर मृत्यु विषयकवार्ता सुन २ कर बढ़ता है। यथार्थ में मृत्युको ईश्वर ने किये हुए अपराधोंसे मुक्त होने के लिये स्वर्ग में जानेका द्वाररूप बनायाहै; अतः उसे पवित्र और धर्म्य समझना चाहिये। परन्तु "आया है सो जायगा" इसप्रकार की चिन्तना करके मृत्युसे डरना अविवेकताका लक्षण है। तथापि, बहुधा, मनुष्य मरनेके विषयमें नानाप्रकारके तर्क बाँधते हैं। तपश्चर्यासम्बन्धी प्राचीन पुस्तकोंमें लोगोंने लिख रक्खा है कि, तुम अपने हाथकी एक उँगली को जलाकर अथवा अन्य किसी


  1. ज्ञानवान् पुरुष कहते हैं कि, जितने शरीरधारी हैं मरना उनकी प्रकृति (स्वभाव) और जीना विकृति (विकार) है। तस्मात् मनुष्यका श्वास क्षणमात्र जितना चलता हैं उतनेही को महान् लाभ समझना चाहिये।