पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/२४

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मृत्यु।


प्रकारसे उसको पीड़न करके देखो तुम्हें कितनी वेदना होती है और उस वेदनासे मृत्युकी वेदना की, जब समस्त शरीरका पात और पृथक्करण होताहै, कल्पना करो। परन्तु इसप्रकारका तर्क समंजस नहीं कहाजासक्ता; क्योंकि मरनेके समय बहुधा इतनाभी क्लेश नहीं होता जितना शरीरके एक अवयव के कटजाने अथवा पीड़ितहोने से होता है। कारण यह है कि, किसी किसी मर्मस्थान तक वेदनाके पहुंचने के पहिलेही कभी कभी उसका वेग जाता रहता है। एक तत्त्ववेत्ताने बहुत ठीक कहा है कि, मृत्युकी अपेक्षा मृत्युकालका उपकरण अधिक भयंकर लगता है। मरते हुए का कराहना; उसके मुखकी विकृतचेष्टा; उसके अंगविक्षेप तथा इष्टमित्रोंका रोना और प्रेतसंस्कार की विधि इत्यादिको देखकर मनुष्यका भयभीत होजाना कोई आश्चर्य की बात नहीं।

एक बात यह ध्यानमें रखनेके योग्यहै कि, मनुष्य में ऐसे भी विकारहैं जिनके जागृत होने से मृत्यु तृणप्राय होजाता है। अतः मनुष्य में जब इसप्रकार के अनेक विकार जागरूक हैं, तो मृत्यु से इतना कदापि न डरना चाहिये। देखियेः-बदला लेने के समय मनुष्य मृत्यु को कुछ समझताही नहीं, प्रेम में मत्त होने से मनुष्य मृत्यु का तिरस्कार करता है; अकीर्ति से बचने के लिये मृत्यु को मनुष्य मन से चाहता है; दुःख में मनुष्य मृत्यु को घर बैठे बुलाता है; और भय के मारे भीरु मनुष्य अपने को अपनेही हाथसे मृत्यु को अर्पण कर देता है। इतनाही नहीं किन्तु कभी कभी दूसरों के दुःख को देखकर भी मनुष्य अपने प्राण देदेता है। रोम के ओथो नामक राजा ने जब अपने हाथ से अपने को मारडाला तब उसके अनेक सच्चे मित्र और अनुयायीजनोंने राजभक्ति और स्नेह को दिखानेही के लिए प्राणपरित्याग किये। सेनेका नामक रोम का तत्त्ववेत्ता यहाँ तक कहता है कि, जो मनुष्य शूर अथवा आपत्तिपीड़ित नहीं हैं वे भी कभी कभी एकही काम को बारम्बार करने के लिये विवश किये जाने पर, ऊबकर अपना जी देदेते हैं।