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पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/३६

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स्वार्थपरता।


हो जाती है। लड़कपनमें लड़कोंकी रुचि जिस ओर अधिक होती है उस कामको आगे वे अनायासही उत्साहके साथ करैंगे—यह विचार कर उनके स्वभाव और उनकी आभरुचिका शोध करनेके झगड़ेमें न पड़ना चाहिए। यह सत्यहै कि, लड़कोंकी प्रवृत्ति अथवा बुद्धिवैलक्षण्य किसी कार्य विशेष में यदि अत्यधिक देख पड़ै तो उनका प्रतिरोध न करना चाहिए; परन्तु सामान्य नियम यह है, कि जिस वृत्तिका अवलंबन करनेसे आगे विशेष वैभव और मान मर्यादा बढ़ने की आशा है उसी की ओर उन्हैं प्रवृत्त करदेना चाहिए। ऐसा मार्ग प्रारंभ में यदि कष्टसाध्य भी हुआ तो अभ्यास करते करते कुछ दिनमें वह सुखसाध्य हो जाता है।

बहुशः छोटे भाई अधिक भाग्यवान् होते हैं; परन्तु जहां बड़े भाई पैतृक सम्पत्ति पानेसे वंचित करदिए जाते हैं वहां छोटे भाई क्वचितही ऊर्जित दशाको पहुँचते हैं; अथवा यही क्यों न कहैं कि, कभी भी नहीं पहुँचते।


स्वार्थपरता १२.

तृणं[] चाहं वरं मन्ये नरादनुपकारिणः।
घासो भूत्वा पशून्पाति भीरूपाति रणाङ्गणे॥

शार्ङ्गधरपद्धति.

दमिक अपने आपके लिए अपने काम में चतुर होता है; परन्तु फलोत्पादक अथवा सामान्य वाटिकाको वह हानि पहुंचाता है। इसी प्रकार जो मनुष्य अत्यन्त स्वार्थ प्रिय होतेहैं वे सार्वजनिक कामोंको बिगाड़ देतेहैं। स्वहित और समाजहितमें सुविचारपूर्वकभेद करनाचाहिए। अपना हित साधन करनेके लिए चेष्ठा करना किसी प्रकार दूषणीय नहीं, परन्तु स्वेष्टसाधनमें दूसरों का और विशेष करके अपने देश तथा अपने


  1. परोपकार न करने वाले स्वार्थपर मनुष्यसे हम तृणको अच्छा समझतेहैं क्योंकि तृणसे पशु अपना उदर तो पोषण करतेहैं और रणक्षेत्रमें भयभीत हुए जन उसे मुखमें दाब शत्रुओंसे अपने प्राण तो बचातेहैं।