राजाका जिसमें अनिष्ट न हो वही करना उचित है। अपनेही को केन्द्र कल्पना करके स्वार्थ के लिएही सदैव पुरुषार्थ करना अत्यन्त निंद्य हैं। इस प्रकारका व्यापार-अपने को केन्द्र मानना-यह जड़ात्मक पृथ्वी भी करती है। केवल वही अपने केन्द्रके चारों ओर फिरती हैं; शेष सारेग्रह और उपग्रह जिनका कुछ भी योग आकाशसे है वे दूसरेही के केन्द्र के चारों ओर घूमते और उन्हींको लाभ पहुँचातेहैं।
यदि राजा स्वार्थपरायण हुवा तो उससे उतनी हानि नहीं होती क्योंकि उसका लाभ केवल उसीका लाभ नहीं है। राजाकी भलाई में प्रजाकी भलाई है और उसकी बुराई में प्रजाकी बुराई है, परन्तु राजपुरुषों में अथवा प्रजासत्तात्मक देशके किसी नागरिक अधिकारी में स्वार्थपरता होनेसे घोर अनर्थ की संभावना रहती है। कारण यह है, कि ऐसे ऐसे पुरुषोंको जो कुछ करना पड़ैगा जो वे अपने स्वार्थ साधनकी ओर झुकावैंगे और उनका स्वार्थ राजा अथवा दशके स्वार्थ से अवश्यमेव भिन्न होगा। अतएव, एक व्यक्तिके हितके लिए समग्र देशका अनहित होजायगा। इस लिए राजाओं और प्रजासत्तात्मक संस्थानोंको, स्वार्थ परताका दुर्गुण जिनमें न हो, ऐसे अधिकारी ढूँढकर रखने चाहिए। परन्तु अधिकार द्वारा स्वार्थसाधनही के लिए यदि राजाने किसी की नियुक्तताकी हो तो वह बात दूसरी है। स्वामी और सेवक के हितका प्रमाण जहां लुप्तप्राय हो जाताहै वहां स्वार्थपरता से और भी भयंकर अनर्थ होते हैं। स्वामीके हित की अपेक्षा अपने हितकी ओर विशेषदृष्टि रखनेही में पहिले अधर्म है; फिर अपने थोड़ेसे लाभके लिये स्वामी को भारी हानि पहुँचाने में तो अधर्म की सीमाही नहीं। अब देखिये ऐसे कृत्यों में कितना प्रमाणवैषम्य है। तथापि अनेक उच्चपद, कोषाधिकार, सैनापत्य, दौत्य इत्यादि गुरुतरभार जिनके ऊपर न्यस्त हैं वे तथा अन्य दुर्वृत्त और उत्कोचग्राही राज पुरुष ऐसेही होते हैं। ऐसे ऐसे लोग अपने अत्यल्प लाभ के लिये स्वामी के बड़े बड़े और महत्वपूरित कार्यों को भी बिगाड़ने से नहीं