पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३५)
शिष्टाचार और मान।


कि ऐसे काम नित्यही पडा करते हैं, और नित्यही लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकर्षित हुवा करती है। परन्तु विशेष सद्गुण प्रकट करनेका पर्वकाल कभी कभी आता है। अतएव शालीनता और विनयसंपन्न होने से मनुष्यकी प्रतिष्ठा प्रतिदिन बढती है। सभ्यता का व्यवहार मनुष्य की मानवृद्धि के लिये मानो स्वयंभू सर्टीफिकेट ही है। इस व्यवहारके सीखने में कोई कष्ट उठानेकी आवश्यकतानहीं पड़ती। अवहेलना न करके उसके अनुसार वर्त्ताव करनाहीं बसहै। केवल इतनाहीं देखना चाहिए कि और लोग किस प्रकारकी रीतिका अवलंबन करतेहैं; शेष सब आपही आप आजाता है। शिष्टाचार स्वभाव सिद्ध होना चाहिये जिसमें औरोंको यह न भास हो कि ऊपरी मन से ये हमारा आदर सत्कार करते हैं। ऐसा होनेसे उपचारकी सारी शोभा जाती रहतीहै। जिस प्रकार छन्दःशास्त्रमें प्रत्येक वृत्तके अक्षर गिने हुए होते हैं, वैसेही किसी किसी मनुष्यके वर्त्ताव में भी सब बातैं नियमित होतीहैं । सच है; जो मनुष्य छोटी मोटी बातोंकी ओर विशेषध्यान न देगा वह बडे बडे महत्वपूरित कायों को कैसे कर सकेगा?

दूसरोंका शिष्टाचार न करना मानो उन्हैं यह सिखाना है कि वे भी जब तुमसे मिलैं तब तुम्हारा आदरसत्कार न करैं। ऐसा होनेसे अवश्य अपना मान कम होगा। अपरिचित और आदरप्रिय जनोंका सत्कार विशेष करके करना उचित है; परन्तु अत्यधिक शिष्टाचार करने अथवा आकाश पाताल दिखानेसे जी ऊब उठता है; और यही नहीं किन्तु सत्कार करनेवाले के सद्भाव की भी शंका आती है। उस समय यह स्पष्ट होजाता है कि बोलनेवाला बनावटी लल्लोपत्तो कर रहा है। कोई कोई वाक्य ऐसे हृदयंगम हैं जिनका प्रयोग सभ्योपचार करते समय यथावसर करनेसे बहुतही अच्छा लगता है। जो समान शील और परिचित हैं वे अपनेसे अवश्यही निःशंक और शुद्ध व्यवहार करैंगे; अतः उनसे वार्त्तालाप करने में कुछ भव्यता दिखानी चाहिए। जो अपने से कम योग्यता रखनेवाले हैं वे अपना