सुरक्षित रख लियाहै; परन्तु दूसरोंका अनिष्ट और अपना इष्ट साधन करते करते अन्तमें वह चंचलालक्ष्मी[१] उन्हैं धूल में मिलाकर न जानैं किस मार्गसे कहां निकल जाती है।
तिष्ठतां[२] तपसि पुण्यमासृजन् सम्पदोऽतुगुणयन्सुखैषिणाम्।
योगिनां परिणमन्विमुक्तये केन नास्तु विनयः सतांप्रियः।
किरातार्जुनीय।
जिस रत्नको कुन्दन करनेकी आवश्यकता नहीं पडती वह जैसे अवश्यमेव बहुमूल्य होता है, वैसेही जो मनुष्य औरोंके आचार व्यवहार पर ध्यान न देकर मनमानी चाल चलता है वह विलक्षण गुणवान् होता है। तथापि साधारणतया मनुष्यको सामाजिक रीत्यनुसारही शिष्टाचारसम्मत व्यवहार करना उचित है। विचार करनेसे यह स्पष्ट हो जायगा कि, स्तुति और प्रशंसा तथा लाभ और प्राप्ति ये बहुत करके परस्पर तुल्य हैं। कहावत सत्य है कि थोड़ी थोड़ी प्राप्तिसे कालान्तरमें बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता है क्योंकि अल्पलाभ बारंबार हुआ करते हैं भारीलाभ कभी कभी किसी विशेष अवसर पर होते हैं। प्रशंसाकाभी यही नियम है। छोटे मोटे कामोंमें प्रशंसा होते होते मनुष्यको अधिक मान मिलने लगता है, क्यों-
- ↑ लक्ष्मीके चंचलत्वपर एतद्देशीय अनेक कवियोंने अनेक प्रकारकी उक्तियां कहीं हैं उनमेंसे एक संस्कृत कवि कहता है:-
या स्वसद्मनि पद्मेपि सन्ध्याकाले विजृम्भते।
इन्दिरा मन्दिरेऽन्येषां कथं स्थास्यति निश्चला॥ १ ॥अर्थात् जो लक्ष्मी, और कहीं की कौन कहै अपने घर, कमलमें भी केवल सायङ्काल, सोभी क्षणमात्र के लिये आतीहै वह दूसरों के घरमें भला कब निश्चल होकर रहैगी? सायङ्काल लक्ष्मीका कमलमें वास करना कविसमयसिद्ध है।
- ↑ तपस्वी जनोंके लिए पुण्यका सम्पादन करनेवाला, सुखकी इच्छा रखने वालोंके लिए सम्पदाओंका देनेवाला, योगियोंके लिए मुक्तिका मार्ग दिखाने वाला ऐसा यह विनय-सौशील्य-सज्जनोंको क्यों न प्रिय हो?