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पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/५०

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कुरूपता


करना चाहिये। परन्तु जैसे गायक लोग गानेमें अलौकिक मूर्च्छना निकालते हैं वैसेही चित्रमें चित्रकारको अपने विलक्षण कौशलद्वारा सौंदर्यातिशय उत्पन्न करना चाहिये; नियमोंके अनुसार खींचनेसे काम नहीं चल सकता। कभी कभी ऐसे चित्र देखनेमें आते हैं कि यदि उनके प्रत्येक अवयव की अलग अलग परीक्षा कीजाय तो उनमें से एक भी अच्छा न निकलै; परन्तु उन सबको एक साथ संयुक्त देखने से चित्रमें कोई दोष नहीं जान पड़ता।

यदि यह मान लियाजाय कि सौन्दर्य का विशेष अंश मर्यादशील गति और वर्तन ही में है तो वृद्ध मनुष्यों को भी सौन्दर्यवान् कहने में आश्चर्य करने की कोई बात नहीं; क्योंकि उनमें यह गुण विशेष करके और भी अधिक पाया जाता है। दुर्गुणों का त्याग किए बिना थोड़ी अवस्था में सुन्दरता शोभा नहीं पाती; कारण यह है, कि सुन्दरता के लिये जिन जिन बातों की आवश्यकता होती है उनकी प्राप्ति वयोवृद्धि के साथ साथ हुआ करती है। सुरूपता ग्रीष्मऋतु के फलोंके समान है—ऐसे फल जो बहुत दिन तक न रहकर शीघ्र बिगड़ जातेहैं। सौन्दर्य युवा मनुष्यों में अनेक दुर्व्यसन उत्पन्न कर देता है और बुढ़ापे में लज्जित करता है। परन्तु, हां, यदि सौन्दर्य लोकोत्तर हुआ तो उसके कारण सद्गुण विशेष शोभा पाते हैं और दुर्गुण दब जाते हैं।


कुरूपता १७.
विद्या[] रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।

सुभाषितरत्नभाण्डागार।

कुरूप मनुष्य ब्रह्मासे बहुधा बराबरी का बर्ताव करते हैं। जैसे ब्रह्माने उन्हें कुरूप बनाकर उनके साथ अनुचित व्यवहार कियाहै वैसे ही वे भी अपने अनुचित आचरणद्वारामानों उससे बदला लेते हैं; क्योंकि (जैसा धर्म्म ग्रन्थों में लिखा है) कुरूप मनुष्यों में प्राकृतिक प्रेम अर्थात् मनुष्यके आवश्यक मनोधर्म बहुधा कम पायेजाते हैं। शरीर और


  1. कुरूपों का रूप विद्या और तपस्वियों का रूप क्षमा है।