तथा अपने पदकी प्रशंसा करनेमें कोई क्षति नहीं; इस मकार की प्रशंसासे सनुष्यकी मानहानि नहीं होसकती।
निजगुणगरिमा[१] सुखाकरः स्यात्
स्वयमनुवर्णयतां सतां न तावत्।
निजकरकमलेन कामिनीनां
कुचकलशाकलनेन को विनोदः?
सुभाषितरत्नाकर।
ईसापने एक कहानी लिखी है वह यह है—एकबार एक मक्खी किसी गाड़ीके पहियेके धुरे पर बैठी और कहने लगी, 'ओह! हो!देखो तो मैं कितनी धूल उड़ारहीहूँ! कोई कोई मनुष्य इसी प्रकार के बड़ाई हांकनेवाले होते हैं। किसी काममें यदि वे किंचिन्मात्र भी छूगये तो यही समझते हैं कि, जो कुछ होता है सब हमी करते हैं; फिर चाहै वह काम आपही आप क्यों न होरहा हो अथवा चाहै उसके होनेका कैसाही महान् कारण क्यों न हो! जो लोग अभिमानवश अपनेही मुखसे अपनीही बड़ाई करतेहैं वे अवश्यमेव कलहप्रियभी होते हैं; क्योंकि, दूसरोंसे अपनी तुलना करके उनकी अपेक्षा हम अधिक प्रशंसनीय हैं, यह उन्हें कहनाही पड़ता है। अपना माहात्म्य सिद्ध करनेके लिये उनको विशेष बकवादभी करना पड़ता है। गुप्तबात उनके पेटमें नहीं पचती; इसीलिये वे बहुधा धोखा खाते हैं और उनके कार्य सिद्ध नहीं होते। काम थोड़ा परन्तु आडम्बर अधिक—यह उनका सिद्धान्त होताहै।
परन्तु राजकीय व्यवहारों में आत्मश्लाघासे बहुत काम निकलता है। किसीके विषयमें यदि मनुष्योंके चित्तमें पूज्यबुद्धि उत्पन्न करना हो
- ↑ भले आदमियों को अपने गुण अपनही मुखसे कहना अच्छा नहीं लगता। अपनेही करकमलोंसे अपनेही कुचकलशोंको स्पर्श करना स्त्रियोंके लिये, भला कहिये, क्या कोई विनोद की बात है?