पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(६३)
स्वभाव।


विवेकशून्यको किसीके मरनेपर अनायास बहुत धन प्राप्त होनेसे, पास पड़ोसके मनुष्यवेषधारी गृद्धोंको टूट पड़नेके लिए अच्छा आमिष मिलता है।

बड़े बड़े पुरस्कार देना और बड़ी बड़ी संस्थाओंकी स्थापना करना द्रव्यको व्यर्थ फेंक देना है, क्योंकि इस प्रकारके जितने दातृत्वके काम होते हैं वे ऊपरसे तो भव्य और आश्चर्यजनक देख पड़ते हैं परन्तु कालान्तरमें वे अवश्य जीर्ण शीर्ण होजाते हैं और उनकी वह पहिली शोभा नहीं रहती। अतएव बिना विचारे अपरिमित दान न करना चाहिए; आवश्यकतानुसार नियमित रीतिपर दान करना उचित है। दान धर्म जो कुछ करना है उसे शीघ्रही कर डालना चाहिए; अब करैंगे, तब करैंगे, इस प्रकार विलम्ब करना अनुचित है। सूक्ष्म विचार करनेसे यह स्पष्ट विदित होजायगा कि जो मनुष्य मरनेके समय दान धर्म करता है वह यथार्थमें अपने द्रव्यको देकर उदारता नहीं दिखाता; किन्तु दूसरेके द्रव्यको देकर दिखाता है। उस समय वह यह जानता ही है कि थोड़े ही समयमें, मेरे अनन्तर यह सब वैभव मेरे हाथसे निकलकर दूसरेके अधिकारमें आजावेगा।


स्वभाव २२.
या[१] यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते।

शार्ङ्गधर।

स्वभाव गुप्त रहता है; कभी कभी वह मनुष्यके वशमें भी आजाता है; परन्तु निर्मूल बहुत कम होता है। स्वभावको बलपूर्वक वशमें लानेका मयन करनेसे वह और भी अधिक आवेशके साथ अपनी सत्ता जमाता है। उपदेश और शिक्षासे स्वभाव कुछ नम्र होजाता है परन्तु उसको पूर्णतया बदलने अथवा जीतनेके लिए केवल अभ्यासही समर्थ है। जिसकी यह इच्छा है कि वह स्वभावको अपने वशमें


  1. जो जिसका स्वभाव है वह बहुधा नहीं छूटता।