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स्वभाव।

किसी कामको बराबर करते रहना अच्छा नहीं। निरन्तर ऐसा करनेसे स्वभाव बिगड़ जाता है। बीच बीचमें अवकाशपूर्वक काम करना चाहिए। इसके दो कारण हैं। विश्राम लेनेसे एक तो फिर काम करनेकेलिए उत्साह बढ़ता है और दूसरा यह कि, यदि मनुष्य कार्यपटु नहीं है तो संतत काममें लगे रहनेसे उसके स्वाभाविक दोष भी गुणोंके साथ मिलजाते हैं और ऐसा होनेसे दोनोंके करनेका उसे स्वभाव पड़जाता है। गुणदोषोंके मेल को बचानेके लिए यही एक उपाय है कि निरन्तर किसी बातका अभ्यास न करके उसे सावकाश करना। स्वभावको हमने अपने वशमेंकर लिया है ऐसा कदापि न समझना चाहिए। बहुत काल पर्यन्त दबा रहनेपर भी सन्धि मिलतेही स्वभाव फिर जागृत हो उठता है। ईसापने एक कहानी लिक्खी है। वह यह है:-एक बिल्ली थी। दैवयोगसे वह स्त्री होगई। उसके सब व्यवहार भी मनुष्य हीकेसे होगए। एक बार उसने एक चूहेको अपने सामनेसे जाते देखा। बस फिर क्या था; तत्काल ही छलांग भर उसपर कूद पड़ी और पकड़ कर उसे उदरस्थ करलिया। अतएव यातो स्वभावको चंचल करनेवाले जितने मोहक प्रसंग हैं उनसे मनुष्यको अलग रहना चाहिए या उनका वारंवार सामना करना चाहिए। इस प्रकारका आचरण रखनेसे अपाय नहीं होता।

एकान्त स्थलमें मनुष्यके स्वभावका यथार्थ परिचय मिलता है, क्योंकि उस समय बनावटी व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं रहती। क्रोधमें भी स्वभावका स्वरूप ठीक ठीक दिखाई देता है; उस समय भी विधि, विधान और लोकाचारका ज्ञान जाता रहता है। कोई नया प्रसंग आने अथवा नया अनुभव होने में भी यही होता है; कारण यह है कि, ऐसे अवसरपर रूढ़िका ज्ञान काम नहीं करता।

जो विषय अपनेको अच्छे नहीं लगते और उन्हें सीखना है, उन के लिए समय नियत करदेना चाहिए। परन्तु जो विषय अपनेको प्रिय हैं, उनके लिए नियामित समय न होनेसे भी हानि नहीं; क्योंकि,