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कार्यसाधन।


खेदकी बात है, इस समय, अत्यल्प सिद्धिके लिए अति महान प्रयत्न किए जाते हैं।


कार्यसाधन २४.

यो[१] यत्र कुशलः कार्ये तं तत्र विनियोजयेत्।
कर्मस्वदृष्टकर्मा यः शास्त्रज्ञोऽपि विमुह्यति ॥ १॥
न तच्छस्त्रैर्न नागेन्द्रैर्न हयैर्न च पत्तिभिः।
कार्य संसिद्धिमभ्येति यथा बुद्ध्या प्रसाधितम् ॥२॥

सुभाषितरत्नभाण्डागार।

किसीसे कुछ कहना हो तो चिट्ठी पत्रीकी अपेक्षा प्रत्यक्ष मुखसे कहना अच्छा है; और स्वयं कहनेकी अपेक्षा किसीको मध्यस्थ करके उसके द्वारा कहलाना अच्छा है। परन्तु, यदि किसीके हस्तलिखित उत्तरकी अपेक्षा हो; अथवा, यदि, अपनी प्रामाणिकतासिद्ध करनेके लिए कालान्तरमें अपने पत्रको दिखलाने की आवश्यकता हो; अथवा, यदि, कहने में विघ्न आनेका डरहो; अथवा, यदि, जो कुछ कहना है वह सब एकबारगी किसीको सुननेका अवकाश नहो; तो चिट्ठी पत्रीसे व्यवहार करना अच्छा है। जिन लोगोंके सन्म्मुख होने में उनपर अपना प्रभाव पड़ सकता है उनसे प्रत्यक्ष बात चीत करनी चाहिये। उदाहरणार्थ–अपनेसे छोटोंके साथ। इसी प्रकार सूक्ष्म अर्थात् नाजुक विषयोंमें भी प्रत्यक्ष भाषण करना अच्छा है; क्योंकि, ऐसा करनेसे जिसके साथ बातचीत करते हैं उसकी मुखचर्य्या देखनेका अवसर मिलता है और यह समझमें आजाता है कि कहांतक उसके साथ इस विषयमें बोल सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारणतः जहां 'हां' अथवा 'न' कहने अथवा किसीबातका स्पष्टीकरण करनेका भार अपने ऊपर लेना हो वहां भी स्वयमेव वार्त्तालाप करना उचित है।


  1. जो जिस काममें कुशल है उसको उसी काममें नियुक्त करना चाहिए; जिसने जो काम नहीं किया वह शास्त्रज्ञ होकर भी उसे अच्छी प्रकार नहीं कर सकता। जो काम शस्त्र, हाथी, घोड़ा और पैदल, किसीसे नहीं होता वह केवल बुद्धिके बलसे होता है।