पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय अध्याय अंसाधु को होती है । इसलिए एक श्लोक में कहा है- दुःशोधा दृष्टि हिणा नित्यं विविधदृष्टिना । भिक्षुणा वाजीव ए.ब परेस्वायत्तवृत्तिना।। इसी प्रकार भिन्तु के लिए. आजीव-परिशुद्धि कठिन है, क्योंकि उसको अपनी वृत्ति के लिए दूसरों पर श्राश्रित होना होता है । भगवान् महामंगल-सुत्त में कहते हैं कि माता-पिता की सेवा, पुत्र-दार का संग्रह, दान, धर्मचर्या, अनवध कर्म--ये उत्तम मंगल हैं। तप, ब्रह्मचर्य, श्रार्य-सत्यों का दर्शन, निर्वाण का साक्षात्कार, ये उत्तम मंगल हैं। भगवान् कहते हैं कि वहीं सुग्बी है, जो जय-पराजय का त्याग करता है । जय वैर को उत्पन्न करता है; पराजय दुःख का प्रमय करता है । अतः दोनों का परित्याग कर, उपशान्त हो, सुख का श्रासेवन करना चाहिये। राग, द्वेष और मोह-यह तीन अकुशल मूल हैं; इनका प्रहाण होना चाहिये । "राग के समान कोई अग्नि नहीं है, द्वेष के समान कोई कलि नहीं है, शान्ति के समान कोई सुख नहीं", "अक्रोध से क्रोध को जीते, साधुता जीते, कंदर्य को दान से और मृपावादी को सत्य से जीते !" इसलिए, भगवान् मैत्री-भायना की महिमा का वर्णन करते हैं। यह चार ब्रह्मविहारों में से एक है। मेत्तभाव-सुत्त में भगवान् कहते हैं--जितनी पुण्य क्रियावस्तु हैं, वे सब मैत्री-माव की १६ वीं कला के भी बराबर नहीं है । एक भी प्राणी में दुष्ट-चित्त न होना चाहिये । सब के लिए, मैत्री का भाव होना चाहिये। इस प्रकार प्रार्य प्रभूत पुण्य करता है। जिसका किसी से वैर नहीं है, जो सब भूतों से मैत्री करता है, वह सुखी होता है। रतन-सुत्त में सब भूतों के कल्याण की प्रार्थना है। भगवान् इद्रिय-संयम का महत्त्व बताते हैं। वे कहते हैं कि जिसके इन्द्रिय-द्वार अगुप्त हैं, जो भोजन में मात्रा का विचार नहीं करता, उसका चित्त और उसका काय दोनों दुःखी होते हैं । स्मृति और संप्रजन्य से अात्म-रक्षा होती है । ये द्वारपाल हैं, जो चित्तपथ की पाप, अकुशल से रक्षा करते हैं । तीन अकुशल वितर्क हैं--काम, व्यापाद और विहिंसा । इनका परित्याग करना चाहिये । तीन कुशल वितों का—नैक्रम्य, अव्यापाद और अविहिंसा का संग्रह करना चाहिये । इसलिए भिक्षु की आजीव-शुद्धि होनी चाहिये। उसे मैत्री-विहारी और मन-काय-वाक्- से संयत होना चाहिये । जो यथार्थ भिक्षु नहीं है, जो याचनक मात्र है, बो दुःशील है, उसके लिए भगवान् कहते हैं कि यह अच्छा है कि वह तप्त लोहे के गोले को खाये, इसकी अपेक्षा कि वह असंयत राष्ट्रपिंड का भोग करे । पुनः कहते हैं कि इस कारण्डक ( यव की आकृति का तृण-विशेष जो यवदूपी कहलाता है ) को विनष्ट करो, इस कशम्बक ( पूतिकाष्ठ) को अपकृष्ट करो, इस तण्डुल-विहीन प्रीहि को निक्रान्त करो (सुत्तनिपात, पृ० २८१ )। यह अभ्रमण है, किन्तु श्रमण होने का मान करता है । जो भिक्षु पतनीय का श्रापन्न होता है, उसको भगवान् ने भिक्षुओं के साथ सब प्रकार का संयोग करने से बहिष्कृत किया है । श्राहार के एक ग्रास का भी परिभोग उसके लिए मना