पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१२८

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va चौद्ध-धर्म-वसन कर्म विज्जा च धम्मो च सील जीवितमुत्तमं । एतेन मच्चा सुज्झन्ति न गोत्तेन धनेन वा ति ॥ [मझिमनिकाय, ३१२६२] अर्थात् कर्म, सम्यग्-दृष्टि, धर्म, शील और उत्तम श्राजीविका द्वारा, न कि गोत्र और धन द्वारा, बीवों की शुद्धि होती है । सीले पतिट्ठाय नरो सपञो चित्त पाच भावय । आतापी निपको भिक्खु सो इम विजटये जटं ।। [ संयुत्तनिकाय, १२१३] अर्थात् जो मनुष्य शील में प्रतिष्ठित है और जो समाधि और विपश्यना की भावना करता है वह तृष्णा रूपी जटासमूह का संछेद करता है । इस अन्तिम उपदेश के अनुसार श्राचाय बुद्धघोष ने विशुद्धि के मार्ग का निरूपण किया है । शील, समाधि और प्रज्ञा द्वारा सर्व मल का निरसन तथा निर्वाण की प्राप्ति होती है। बुद्ध-शासन की यही तीन शिक्षा हैं। शील से शासन की प्रादिकल्याणता प्रकाशित होती है, समाधि शासन के मध्य में है और प्रज्ञा पर्यवमान में ! शील से अपाय' (दुर्गति, विनिपात ) का अतिक्रमण, समाधि से कामधातु का और प्रज्ञा से सर्वभव का अतिक्रमण होता है। जो व्यक्ति निर्वाण के लिए, यत्नशील होता है, उमे पहिले शील में प्रतिष्ठित होना चाहिए । नत्र शील अल्पेच्छता, सन्तुष्टि, प्रविवेक ( एकान्त-सेवन ) अादि गुग्गों द्वारा मुविशुद्ध हो जाता है, तब समाधि की भावना का प्रारम्भ होता है । ममाधि किसे कहते हैं, समाधि की भावना किस प्रकार होती है और समाधि-भावना का क्या फल है ? इन बातों पर यहाँ विस्तार से विचार किया जायगा । समाधि शब्द का अर्थ है--समाधान; अर्थात् एक श्रालम्बन में समान तथा सम्यग रूप से चित्त और चैतसिक धर्मा की प्रतिष्ठा। इसलिए, 'समाधि, उस धर्म को कहते हैं जिसके प्रभाव से चित्त तथा वैतसिक धर्मों की एक बालम्बन में बिना किसी विक्षेप के सम्यक् स्थिति हो । समाधि में विक्षेप का विध्वंम होता है और चित्त-चैतमिक विप्रकीर्ण न अपाय- -दुर्गति, विनिपात को कहते हैं। शीलभंश से पुद्गल दुर्गति को प्राप्त होता है। दुर्गति चार है--निस्य ( नरक), तिरश्वान-योनि (तियंग-योनि ), प्रेतविषय, भसुरनिकाय । "शतयः षट् । तथथा - नरकस्तिक प्रेतो असुरो मनुष्यो देवश्चेति । (धर्ममग्रह-५७) पहले चार अपाय है। २. कामधातु- कामप्रतिसंयुक्त मिथ्या संकल्प को कहते हैं। अथवा अवधि निरप से प्रारम्भ कर परनिर्मित यशवी देवताभों तक जो अवसर है, उनमें समिलित रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान को 'कामधातु' कहते हैं।