पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१३४

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बौद-धर्म-दर्शन इनमें से भी कोई उपलब्ध न हो तो ऐसे व्यक्ति के समीप ग्रहण करना चाहिये जिसने एक निकाय का अर्थकथा ( टीका ) सहित अध्ययन किया हो और जो प्राचार्य-मत का वक्ता हो । क्षीणाभव, अनागामी श्रादि अपने अधिगत मार्ग का श्राख्यान करते हैं । पर जो बहुश्रुत है वह विविध प्राचार्यों से पाट तथा परिप्रभा द्वारा अपने ज्ञान का परिष्कार कर पाँच निकायों से अमुक अमुक कर्मस्थान के अनुरूप सूत्रपद और सूत्रानुगत युक्ति हूँढ़ निकालते हैं और श्रमण-धर्म के करने वाले को उससे उपयुक्त कर्मस्थान का ग्रहण कराते हैं । इन चालीस कर्मस्थानों को पालि में परिहारिय-कम्मटान कहते हैं । क्योंकि इनमें से जो चर्या के अनुकूल होता है उसका नित्य परिहरण अर्थात् अनुयोग करना पड़ता है । पारिहारिक कर्मस्थान के अतिरिक्त सम्बत्थक-कम्मटान' ( अर्थात् सर्वार्थक कर्मस्थान ) भी है । इसे सर्वार्थक इसलिए, कहते हैं क्योंकि यह सबको लाभ पहुँचाता है। भिक्षुसङ्घ आदि के प्रति मैत्रीभावना, मरण-स्मृति और कुछ प्राचार्यों के मतानुसार अशुभ-संशा भी सर्वार्थक कर्मस्थान कहलाते हैं । जो भिन्तु कर्मस्थान में नियुक्त होते हैं उसे पहिले सीमा में रहनेवाले भितुसङ्घ के प्रति मैत्री प्रदर्शित करनी चाहिये। उसे मैत्री-भावना इस प्रकार करनी चाहिये-सीमा में रहनेवाले भिन्तु सुखी हों, उनका कोई व्यापाद न करे । धीरे-धीरे उसे इस भावना का इस प्रकार विस्तार करना चाहिये। सीमा के भीतर वर्तमान देवताओं के प्रति, तदनन्तर उस ग्राम के निवासियों के प्रति जहाँ वह भिक्षाचर्या करता है, तदनन्तर राजा तथा अधिकारी वर्ग के प्रति, तदनन्तर सत्र सत्त्वों के प्रति मैत्री-भावना का अनुयोग करना चाहिये। ऐसा करने से उसके सहवासी उसके साथ सुखपूर्वक निवास करते हैं। देवता तथा अधिकारी उसकी रक्षा करते हैं तथा उनकी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, लोगों का वह प्रियपात्र होता है और सर्वत्र निर्भय होकर विचरता है । मरण-स्मृति द्वारा वह निरन्तर इस बात की चिन्तना करता रहता है कि मुझे मरना अवश्यमेव है। इसलिए वह कुपथ का गामी नहीं होता तथा वह संसार में लीन और अासक्त नहीं होता । जब चित्त अशुभ-संज्ञा से परिचित होता है अर्थात् अत्र चित्त यह देखता है कि चाहे मृत हो या जीवमान, शरीर शुभ भाव से वर्जित है और इसका स्वभाव अशुचि है । तब दिव्य पालम्बन का लोभ भी चित्त को ग्रस्त नहीं करता । बहु उपकार करने से सबको यह अभिप्रेत है । इसलिए इन्हें सर्वार्थक कर्मस्थान कहते हैं । इन दो प्रकार के कर्मस्थानों के ग्रहण के लिए कल्याण-मित्र के समीप जाना चाहिये। यदि एक ही बिहार में कल्याणमित्र का वास हो तो अति उत्तम है। नहीं तो जहाँ कल्याण- मित्र का प्रावास हो वहां जाना चाहिये। अपना पात्र और चीवर स्वयं लेकर प्रस्थान करना चाहिये । मार्ग में जो विहार पड़े वहाँ वर्त्त-प्रतिवर्त ( कर्तव्य-सेवा-प्राचार ) सम्पादित करना चाहिये । प्राचार्य का वासस्थान पूछकर सीधे प्राचार्य के पास जाना चाहिये। यदि प्राचार्य अवस्था में छोटा हो तो उसे अपना पात्र चीवर ग्रहण न करने देना चाहिये । यदि अवस्था में अधिक हो तो श्राचार्य को वन्दना कर खड़े रहना चाहिये। जब प्राचार्य कहे कि पात्र चीवर भूमि पर रख दो तब उन्हें भूमि पर रख देना चाहिये और यदि वह पानी पीने के लिए पूरे तो इच्छा रहते जल पीना चाहिये। यदि पैर धोने को कहें तो पैर न धोना चाहिये। क्योंकि