पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७५

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पंचमण्याम (= पर्व - उपचार-क्षण में शान्त हो जाता है। इसी प्रकार पूर्व काय-संस्कार उत्तरोत्तर काय संस्कार द्वारा शान्त हो जाता है। काय-संस्कार के शान्त होने से शरीर का कंपन, चलन, स्पंदन, और नमन भी शान्त हो जाता है। आनापान-स्मृति-भावना के ये चार प्रकार प्रारंभिक अवस्था के सावक के लिये बताये गये हैं, इन चार प्रकारों से भावना कर जो योगी ध्यानों का उत्पाद करता है, वह यदि विपश्यना द्वारा अईत् पद पाने की अभिलाषा रखता है तो उसे शील को विशुद्ध कर प्राचार्य के समीप कर्म-स्थान को पांच श्राकार से ग्रहण करना चाहिये । यह पांच श्राकार कर्म-स्थान के सन्धि भाग) कहलाते हैं । यह इस प्रकार है:- उद्ग्रह, परिपृच्छा, उपस्थान, अर्पणा और लक्षण । कर्म-स्थान ग्रन्थ का स्वाध्याय 'उद्ग्रह' कहलाता है । कर्म-स्थान के अर्थ का स्पष्टीकरण करने के लिए, प्रश्न पूछना 'परि- पृच्छा है। भावनानुयोगवश निमित्त के उपधारण को 'उपस्थान' कहते हैं । चित्त को एकाम कर भावना-बल से ध्यानों का प्रतिलाभ 'अर्पणा' है। कर्म-स्थान के स्वभाव का उपधारण 'लक्षण' कहलाता है। योगी दीर्घकाल तक स्वाध्याय करता है, उपयुक्त श्रावास में निवाम करते हुए प्राणान-स्मृति कर्मस्थान की ओर चित्तावर्जन करता है और अश्वास-प्रश्वास पर चित्त को स्थिर करता है । कर्मस्थान अभ्यास की विधि इस प्रकार है गणमा-योगी पहिले श्राश्याम-प्रश्वास की गणना द्वारा चित्त को स्थिर करता है। एक बार में एक से प्रारंभ कर कम से कम पांच तक और अधिक से अधिक दस तक गिनती गिननी चाहिये । गणना-विधि को खण्डित भी न करनी चाहिये । अर्थात् एक, तीन, पांच इस प्रकार बीच-बीच में छोड़ते हुए गिनती न गिननी चाहिये । पाँच से नीचे रुकने पर चित्त का सन्दन होता है और दस से अधिक गिनती गिनने पर चित्त कर्मस्थान का प्राश्रय छोड़ गणना का अाश्रय लेता है। गणना-विधि के खण्डन होने से वित्त में कंपन होता है और कर्मस्थान की सिद्धि के विषय में चित्त संशयान्वित हो जाता है । इसलिए इन दोनों का परित्याग करते हुए गणना करनी चाहिये। पहले धीरे-धीरे गिनती करनी चाहिये। जिस प्रकार धान का तौलने वाला गिनती करता है, उसी प्रकार धीरे-धीरे पहले गिनती करनी चाहिये । धान का तौलने- वाला तराजू के एक पलड़े में धान भरता है और उसे तौलकर 'एक' कहकर जमीन पर उँडेल देता है । फिर पलड़े में धान भरता है और जब तक दूसरी बार नहीं उड़े लता, तब तक बराबर 'एक'-'एक' कहता जाता है। अाश्वास-प्रश्वासों में जो विशद और विभूत होता है उसी का प्रहण कर गणना प्रारंभ होती है और जब तक दूसरा विशद और विभूत नहीं होता, तब तक निरन्तर अाश्वास-प्रश्वास की ओर 'एक'-'एक' कहता रहता है, दृष्टि रखते हुए दस तक गणना -- 1. उपचार और अर्पणो समाधि के प्रकार हैं। अपणा का अर्थ है-आलंबन में एका पिस का वर्पण । अर्पणा ध्यान की प्रतिकाम भूमि है। अर्पणा के उत्पाद से ही पान के पांच भंग सुष होते हैं। अर्पणा का समीपवर्ती प्रदेश उपचार है । उपचार-समाधि का ध्यान अप-प्रमाण का होता है।