पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१७४

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पौर-धर्म-दर्शन (३) योगी सकल माश्यास-काय के आदि, मध्य और अवसान इन सत्र भागों का अवरोध कर अर्थात् उन्हें विशद और विभूत कर श्वास परित्याग करने का अभ्यास करता है । इसी तरह सकल प्रश्वास-काय के आदि, मध्य और अवसान इन सब भागों का अवबोधकर श्वास ग्रहण करने का प्रयत्न करता है। उसके आश्वास-प्रश्वास का प्रवर्तन ज्ञान-युक्त चित्त से होता है किसी को केवल श्रादि स्थान, किमी को केवल मध्य, किसी को केवल अवसान स्थान और किसी को तीनों स्थान विभूत होते हैं। योगी को स्मृति और ज्ञान को प्रतिष्ठितकर तीनों स्थानों में ज्ञान-युक्त चित्त को प्रेरित करना चाहिये। इस प्रकार पानापान स्मृति की भावना करते हुए योगी स्मृतिपूर्वक भावना-चित्त के साथ उच्चकोटि के शील, समाधि और प्रशा का श्रासेवन करता है। पहले दो प्रकार में प्राश्वास-प्रश्वास के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना होता है । किन्तु इनके श्रागे ज्ञानोत्पादनादि के लिए सातिशय उद्योग करना होता है । (४) योगी स्थूल काय-संस्कार' का उपशम करते हुए, श्वास छोड़ने और श्वास ग्रहण करने का अभ्यास करता 1 कर्मस्थान का प्रारंभ करने के पूर्व शरीर और चित्त दोनों क्लेश-युक्त होते हैं । उनका गुरुभाव होता है। शरीर और चित्त की गुरुता के कारण आश्वास-प्रश्वास प्रबल और स्थूल होते हैं; नाक के नथुने भी उनके वेग को नहीं रोक मकते। और भिक्षु को मुँह से भी साँस लेना पड़ता है। किन्तु जब योगी पृष्ठवंश को सीधा कर पर्यक-अासन से बैठता है और स्मृति को सम्मुख उपस्थापित करता है तब योगी के शरीर और चित्त का परिग्रह होता है। इससे बाह्य विक्षेप का उपशम होता है, चित्त एकाग्र होता है और कर्मस्थान में चित्त की प्रवृत्ति होती है। चित्त के शान्त होने से चित्त-समुत्थित रूपधर्म लघु और मृदुभाव हैं। श्राश्वास-प्रश्वास का भी स्वभाव शान्त हो जाता है और वह धीरे धीरे इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि यह जानना भी कठिन हो जाता है कि वास्तव में उनका अस्तित्व भी है या नहीं। यह काय-संस्कार क्रमपूर्वक स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर; सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतम हो जाता है, यहाँ तक कि चतुर्थ ध्यान के क्षण में यह परम सूदमता की कोटि को प्राप्त हो दुर्लक्ष्य हो जाता है । जो काय संस्कार कर्म-स्थान के प्रारंभ करने के पूर्व प्रवृत्त था, वह चित्त-परिग्रह के समय शान्त हो जाता है । जो काय-संस्कार चित्त-परिग्रह के पूर्व प्रवृत्त था, वह प्रथम ध्यान के प्राप्त होते १. काय-संस्कार प्राश्वास प्रश्वास' को कहते हैं, यद्यपि माश्यास-प्रश्वास विस-समुस्थित धर्म है, तथापि शरीर से प्रतिबद्ध होने के कारण इन्हें 'काय' कहते है। शरीर के होने पर ही माश्वास-प्रश्वास की क्रिया संभव अन्यथा नहीं। कसमे कायसंखारा ? वीर्य अस्सास ...."परस्साला काविका एते सम्मा कापपति बद्घा कायसंसारा परिसंभिदा ।