पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१९२

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बौब-धर्म-दर्शन किन्तु उसका अर्थ प्रतिज्ञा है। कभी-कभी यह पुण्य-विपरिणामना (= सत्य-वचन ) है । किन्तु ईसवी सदी के कुछ पहले से बौद्धों में करुणामय-देवों की पूजा प्रारम्भ हुई, जिनकी प्रतिमा या प्रतीक की वे पूजा करने लगे और जिनसे सुख और मोक्ष की प्राप्ति के लिए वे प्रार्थना करने लगे। ये देव शाक्यमुनि, पूर्व-बुद्ध, अनागत बुद्ध, मैत्रेय, बोधिसत्व हैं । भक्ति का प्रभाव बढ़ने लगा। निर्वाण का स्वरूप भी बदलने लगा। सुग्वभूमि की प्राप्ति इसका उद्देश्य होने लगा। बुद्ध लोकोत्तर हो गये। यद्यपि पालि-निकाय में बुद्ध को लोकोत्तर कहा है, किन्तु वहाँ इसका अर्थ केवल इतना है कि बुद्ध पद्म-पत्र की तरह लोक से ऊपर हैं। उनका विशेषत्व केवल यही है कि उन्होंने निर्वाण के मार्ग का श्राविष्कार किया है । बुद्ध लक्षण और अनुव्यंजनों से युक्त महापुरुष भी कहा है, यह भी इसी अर्थ में है । जैसे-नारायण को 'महापुरुष कहते हैं, जो एक, अद्वितीय, शाश्वत हैं, वैसे पालि-अागम के बुद्ध नहीं है । किन्तु कुछ बौद्ध उनको विशेष-अर्थ में लोकोत्तर मानने लगे। कुछ अन्धक, और उत्तरापथक मानते थे कि भगवान् के उचार-प्रसार (=मल-मूत्र ) का गन्ध अन्य गन्धों से विशिष्ट है । कथावत्थु १८वें वर्ग के अनुसार भगवान् ने एक शब्द भी नहीं कहा है । अानन्द ने ही उपदेश दिया है । इस मत के बौद्ध लोकोत्तरवादी कहलाते थे । उनके अनुसार निर्वाण का अर्थ बुद्ध-श्रवस्था का शाश्वतन्त्र है । गान्धार-रीति की जो बुद्ध की मूर्तियाँ है उनमें शाक्यमुनि, पूर्वबुद्ध, तथा अन्य-बुद्धों को ध्यान की अवस्था में दिखाया है। चरम-भविक ( = अन्तिम जन्मवाला ) बोधिसत्व तुन्ति-लोक से बुद्ध होने के लिए अवतीर्ण होता है । वह लोकोत्तर- पुरुष है । उसका जन्म अद्भुत है, और वह लक्षणों से संयुक्त है । स्थविःों का कहना है कि बोधि के अनन्तर यह लोकोत्तर होते हैं किन्तु वह लोकानुवर्तन करते हैं। अनेक कल्प हुए कि हमारे शाक्यमुनि ने पूर्वबुद्ध के सम्मुख यह प्रणिधान किया कि 'मैं बुद्ध हूँगा। उन्होंने अनेक जन्मों में १० पारमिताओं की साधना की। उन्होंने अन्तिम-जन्म में कुमारी-माया के गर्भ में मनोमय-शरीर धारण किया। उनकी पत्नी भी कुमारी थीं, क्योंकि अन्तिम-जन्म में बुद्ध काम-राग में अभिनिविष्ट नहीं होते। भूतदया से प्रेरित हो वे मानव-जन्म ले लोगों को उपदेश देते है। 'वेतुल्लक कहते हैं कि-शाक्यमुनि ने मनुष्य-लोक में कभी अवस्थान नहीं किया, वे वास्तव में तुफ्ति-लोक में रहते हैं। मनुष्यों और देवताओं ने केवल उनकी छाया देखी है। सद्धमपुण्डरीक में यह वाद सुपल्लवित हुआ है। इस ग्रन्थ में शाक्यमुनि का माहात्म्य वेर्सित है। उनका यथार्य-काय संभोगकाय है । ये धमदेशना के लिए समय-समय पर लोक में प्रादुर्भूत होते हैं। यह उनका निर्माणकाय है। इसी की स्तूप-पूजा होती है । पांचवीं-छठी शताब्दी में कुछ बौद्ध श्रादि-बुद्ध (=प्रादि कल्पिक बुद्ध ) भी मानने लगे, जिनसे अन्य बुद्धों का प्रादु- र्भाव हो सकता था। किन्तु यह विचार तीर्थक ( हेरिटिक ) विचार माना जाता था। खुत्रालंकार ( ६/७७ ) में इसका प्रतिषेध यह कहकर है कि कोई पुरुष प्रादि से बुद्ध नहीं होता, क्योंकि बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए, पुण्य और ज्ञान-संभार की आवश्यकता है। धीरे- धीरे बुद्धों की संख्या बढ़ने लगी। पूर्वविश्वास के अनुसार एक काल में एक साथ दो बुद्ध नहीं होते थे । महायान में एक काल में अनेक बुद्ध हो सकते हैं, किन्तु एक लोक में अनेक