पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२३१

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ससम् मध्याय भगवान् समाधि से व्युत्थित हुए और शारिपुत्र को संबोधित किया- "हे शारिपुत्र ! बुदों का शन, सम्यक्सम्बुद्धों का ज्ञान श्रावक और प्रत्येकबुद्धों के लिए, दुर्विशेय है। स्व-प्रत्यय से वे धर्म का प्रकाशन करते हैं और सल्लों के भिन्न-भिन्न स्वभाव के अनुसार विविध उपाय-कौशल्यों के द्वारा उनके दुःख का निवारण करते हैं। भगवान् के इन क्चनों को वहां उपस्थित आशातकौण्डिन्य अादि अर्हत् , क्षीणास्रव महाभावकों ने सुना। उन्हें आश्चर्य हुश्रा कि क्या कारण है कि श्राज भगवान् बिना प्रार्थना किये ही स्वयं कह रहे हैं कि बुद्ध-धर्म दुरनुबोध है । भगवान् ने जो विमुक्ति क्तलाई है उस विमुक्ति को निर्वाण को-तो हमने प्राप्त ही किया है । भगवान् कैसे कहते हैं कि बुद्ध-ज्ञान हमारे लिए दुर्विशेय है ? शारिपुत्र ने भगवान् से प्रार्थना की कि वे बहती के कुतूहल का, शंका का, निवारण करें । भगवान् ने कहा- शारिपुत्र ! सुनो, मैं कहता हूँ। भावान् के मुख से ये शब्द निकलते ही उस परिषद् से पांच हजार भाभिमानिक भिन्नु- भिक्षुणी, उपासक और उपासिकायें अासन से उठकर भगवान् को प्रणाम करके चले गये। तब भगवान् ने कहा-अच्छा हुअा शारिपुत्र ! अब संघ शुद्ध है । सुनो ! हे शारि- पुत्र ! तथागन का संघभाष्य दुर्बोध्य है । नाना निरुक्ति और निदर्शनों से और विविध-उपाय कौशल्यों से मैंने धर्म का प्रकाशन किया है । सद्धर्म तर्क-गोचर नहीं है । तथागत सत्वों को ज्ञान का प्रतिबोध कराने के लिए ही उत्पन्न होते हैं । यह महा कृत्य एक ही यान पर अधिष्ठित होकर बुद्ध करते हैं । यह यान है 'बुद्ध-यान' । इससे अन्य कोई दूसरा या तीसरा यान नहीं है । नाना अधिमुक्तियों के लिए. और नाना धात्वाशय के सत्वो के लिए विविध उपाय-कौशल्य है किन्तु उन सभी उपाय-कौशल्यों का पर्यवसान बुद्ध-यान में ही है। यह बुद्ध्यान ही सर्वज्ञता-पर्यवमान, तथागत-ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति, उसका संदर्शन, अवतरण और प्रतिबोधन करनेवाला है । अतीत, अनागत, और वर्तमान तीनों काल में तथागतों ने बुद्धयान ही स्वीकृत किया है । हे शारिपुत्र ! जब सम्यक्-संबुद्ध क्लेश, दृष्टि संक्षोभ और अकुशलमूल के बाहुल्य से युक्त सत्वों के बीच पैदा होते है, तब बुद्ध्यान का ही तीन यानों के रूप में निर्देश करते हैं । इसलिए, हे शारिपुत्र ! वो भावक, अर्हत् या प्रत्येक-बुद्ध इस बुद्धयान को न मुनगे या न मानेंगे, वे न तो श्रावक हैं, न अर्हत् है और न प्रत्येक बुद्ध ही हैं। इसलिए हे शारिपुत्र ! तुम विश्वास करो कि एक ही यान है 'बुद्धयाना। "एकं हि यानं द्वितीय न विद्यते "तृतियं हि नैवास्ति कदाचि लोके । एक हि कार्य द्वितियं न विद्यते न हीनयानेन नयन्ति बुद्धाः ॥२-५५ यह दूसरा उपाय-कौशल्य-परिवर्त है । भगवान् का यह उपदेश सुनकर शारिपुत्र ने प्रमुदित होकर भगवान् को प्रणाम किया और कहा "भगवन् ! श्रापका यह घोष सुनकर मैं प्रापर्य-चकित हूँ । हे भगवन् ! मैं बार-बार खिन्न होता हूँ कि मैं हीनयान में क्यों प्रविष्ट हुश्रा | अनागत-काल में बुद्धत्व प्राप्त करके धर्मोपदेश करने का मौका मैंने गाया । किन्तु, भगवन् !