पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२५४

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बौद-धर्मनन शत और पंचविंशतिसाहसिका में । दशभूमकसूत्र, बोधिसत्व-भूमि, लंकावतार, सूत्रालंकार आदि अन्थों में, भूमियों का विकसित रूप पाया जाता है । ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि प्रज्ञापारमिता ग्रन्थों में अष्ट और दश साहसिका सबसे प्राचीन है । इसके पश्चात् शत और पंचविंशति प्रज्ञापारमिता का समय है। यद्यपि धर्मशून्यता का विचार अष्टसाहसिका में पाया जाता है तथापि महायान में त्रिकाय और दशभूमि पंचविंशति- प्रशापारमिता के पूर्व नहीं पाये जाते । अष्टसाहसिका आदि प्रज्ञापारमिता ग्रन्थों का मुख्य विचार यह है कि प्रज्ञापारमिता अन्य- पारमिताओं की नायिका अथवा पूर्वगमा है । अष्टसाहसिका पृथ्वी से प्रज्ञापारमिता की तुलना करती है, जिसपर अन्य पारमिताओं का अवस्थान है, और जिसपर वह सर्वज्ञता के फल का उत्पाद करती है । श्रतः प्रज्ञापारमिता सर्वज्ञ तथागत की उत्पादक है। अन्य पारमिताओं की तरह प्रशा- पारमिता का अभ्यास नहीं किया जाता । यह चित्त की अवस्था है, जिसके होने पर दानपारमिता अलक्षण और निःस्वभाव प्रतीत होती है, और ग्राह्य-ग्राहक-विकल्प पहीण होता है । प्रज्ञापार- मिता बताती है कि किसी में अभिनिवेश नहीं होना चाहिए, और बोधिसत्य को सदा इमका ध्यान रखना चाहिए कि पारमिता, समाधि, समापत्ति, फल या बोधिक्षिक-धर्म उपायकौशल्य- मात्र हैं । वस्तुतः इनका कोई स्वभाव नहीं है। प्रज्ञापारमिता ग्रन्थों की शिक्षा है कि सब शून्य है अर्थात् पुद्गल ( अात्मा ) और धर्म द्रव्यसत् स्वभाव नहीं हैं। इनकी शिक्षा है कि विज्ञान और विशेय ( बाह्याथ) दोनों का परमार्थत: अस्तित्व नहीं है, केवल संवृतितः है। सर्वास्तिवाद पुद्गल-नैरात्म्य तो मानता है किन्तु वह एक नियत संख्या को द्रव्यमन् मानता है । किन्तु महा- यान के ये ग्रन्थ इन धर्मों को भी निःस्वभाव मानते है.-धर्म भी संततः है, परमार्थतः नहीं। जीवन प्रवाहमात्र है, यह शाश्वत नहीं है और इसका उच्छेद भी नहीं होता । धर्मों का विभाजन करके जब हम देखत हैं, तब उन्हें हम निःस्वभार पाते हैं, प्रवाहमात्र है, जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है; इस प्रवाह का स्वरूप क्या है, यह नहीं बताता । योगाचार-विज्ञानवादी इस प्रवाह को श्रालय-विज्ञान कहता है। इस नय में चित्त-चैत्त वस्तु सत् हैं, बाह्यार्थ प्रजतिमात्र है। श्रालय-विज्ञान स्रोत के रूप में श्रव्युपरत प्रवर्तित होता है । स्रोत का अर्थ हेतु-फल की निरन्तर प्रवृत्ति है। इस विज्ञान की सदा से यह धर्मता रही है कि प्रतिक्षण फलोत्पत्ति होती है, और हेतु का विनाश होता है । श्रालय-विज्ञान में धर्मों का निरन्तर स्वरूप-विशेष होता है, और अालय-विज्ञान नवीन धर्म श्राक्षिप्त करता रहता है । यह नित्य व्यापार है, प्रालय-विज्ञान विज्ञानों का श्रालय और सर्व सांक्लशिक बीजों का संग्रह- स्थान है। विज्ञानवाद माध्यमिकवाद की प्रतिक्रिया है। जहाँ माध्यमिक विज्ञान को भी राज्य और निःस्वभाव मानता है, वहाँ विज्ञानवाद धातुक को चित्तमात्र मानता है, उसके अनुसार सब शून्य है, केवल विज्ञप्ति वस्तु-सत् है । विशनबाद दशभमक-शास्त्र को अपना आधार मानता है । तथापि इस बाद का प्रारंभ वस्तुतः प्राचार्य असंग से होता है । माध्यमिकयाद के प्रथम- प्राचार्य नागार्जुन है।