पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९१

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शम अध्याय | हो सकती है कि यद्यपि सत्व सर्वसंपत्ति के हेतु है, तथापि तथागत बुद्ध के साथ उनकी समानता युक्त नहीं है। पर यह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जब दोनों से समान रूप में बुद्ध-धर्मों का पागम होता है, तब जिनों के प्रति गौरख होना और सत्वों के प्रति न होना युक्त नहीं है, सत्व यदि रागादि मलों से संयुक्त होने के कारण हीनाशय है, तो भगवत् से समानता कैसे हो सकती है ? यह शंका भी अनुचित है। क्योंकि यद्यपि भगवान् का माहात्म्य अपरिमित पुण्य और ज्ञान के होने के कारण लोकोत्तर है, तथापि कार्य के तुल्य होने से सम माहात्म्य कहा जाता है। सत्व 'जिन' के समान इसीलिए है, क्योंकि वह भी बुद्धधर्म का लाभ कराते हैं । यद्यपि परमार्थ दृष्टि में वह भगवान् के समान नहीं है, क्योंकि भगवान् गुणों के सागर है, और गुणार्णव का एक देश भी अनन्त हैं । यदि किसी सत्व में बुद्ध के गुणों की एक कणिका भी पाई जाय तो तीनों लोक भी पूजा के लिए, अपर्याप्त है अकृत्रिम सुहृद् और अनन्त उपकार करनेवाले बुद्ध तथा बोधिसत्वों के प्रति जो अपकार किया गया है, उसका परिशोधन इससे बढ़कर क्या हो सकता है कि बीवों की सेवा करे ? बोधिसत्य जीवों के हित-मुख के लिए अपने अंग काट-काटकर दे देते है और प्रवीचि नामक नरक में सत्वों के उद्धार के लिए प्रवेश करते हैं। इसीलिए परम अपकार करनेवाले की ओर से भी चित्त को दूषित नहीं करना चाहिये । किन्तु अनेक प्रकार से मनसा वाचा कर्मणा दूसरों का कल्याण ही करना चाहिये। इसी से लोकनायक बुद्ध अनुकूल होंगे और इसी से वांछित फल मिलेगा। बोधिसत्व को विचारना चाहिये कि जिनके निमित्त भगवान् अपने शरीर और प्राणों की उपेक्षा करते हैं, और तृणवत् उनका परित्याग करते हैं, उन सत्वों से वह कैसे मान कर सकता है ? सत्यों को सुखी देखकर मुनीन्द्र हर्ष को प्राप्त होते हैं और उनकी पीड़ा से उनको विवाद होता है। उनकी प्रसन्नता में बुद्धों की प्रसन्नता है और उनका अपकार करने से बुद्ध अपकृत होते हैं । जिसका शरीर चारों ओर से अग्नि प्रचलित हो रहा है. बह किसी प्रकार इच्छाओं में सुख नहीं मानता। इस प्रकार जब सत्वों को दुःखवेदना होती है, तब दयामय भगवान् प्रसन्न नहीं होते। मैंने सत्वों को दु.ख देकर सब बुद्धों को दुखित किया है । इसलिए आज मैं अपना पाप महाकारुणिक जिनों के आगे प्रकाश करता हूँ। मैंने उनको दुःख पहुँचाया, इस- लिए क्षमा मांगता हूँ। मैं अपने को सब प्रकार से लोगों का दास मानता हूँ | लोग चाहे मेरे सिर पर पैर रखें, उनका पैर मैं प्रसन्नता से सिर पर धारण करूँगा। इसमें संशय नहीं है कि बुद्ध और बोधिसत्वों ने समस्त जगत् को अपनाया है । यह निश्चित है कि बुद्धः सत्व के रूप में दिखलाई पड़ते हैं। वे नाथ है । हम उनका अनादर कैसे कर सकते हैं। प्रात्मीकृतं सर्वमिदं जगत्तः कृमभिनैव हि संशयोस्त । दृश्यन्त एते ननु सत्यरूस्त एवं नाथाः किमनादरोऽत्र । बोधि० ६।१२६ ] तथागत बुद्ध इसी से प्रसन्न होते हैं । स्वार्थ की सिद्धि भी इसी से होती है। लोक का दुःख भी इसी से नष्ट होता है । इसलिए. यही मेरा व्रत हो ।