दशम अध्याय संवृति-सत्य की तो प्रतीति होती है, क्योंकि हमारी बुद्धि अविद्या के अन्धकार से श्रावृत्त है। अविद्या से उपप्लुत होने के कारण चित्त का स्वभाव अविद्यायुक्त हो जाता है; इसलिए संवृति-सत्य की प्रतीति होती है। पर यह नहीं ज्ञात है कि परमार्थ-वस्त्य का क्या स्वरूप और लक्षण है । परमार्थ-सत्य ज्ञान का विषय नहीं है । वह सर्वज्ञान का अतिक्रमण करता है । वह किसी प्रकार बुद्धि का विषय नहीं हो सकता, तथापि कहा जा सकता है कि परमार्य-तत्त्व सर्व-प्रपंच- विनिमुक्त है, इसलिए, सर्वोपाधि से शून्य है । जो सौंपाधि-शन्य है, वह कैसे कल्पना द्वारा बाना जा सकता है ? उसका स्वरूप कल्पना के प्रतीत है और शब्दों का विषय नहीं है । वहाँ शब्दों की प्रवृत्ति नहीं होती । यद्यपि मकल विकल्प की हानि होने से परमार्थ-तत्त्व का प्रतिपादन नहीं हो सकता, तथापि संवृति का प्राश्रय लेकर शास्त्र में यत्किंचित् निदर्शनोपदर्शन किया जाता है। वास्तव में तत्व अवाच्य हैं, पर दृष्टान्त द्वारा कथंचित् शास्त्र में वर्णित है। बिना व्यवहार का श्राश्य लिए, परमार्थ का उपदेश नहीं हो सकता और बिना परमार्थ के अधिगत किए निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती ! श्राचार्य नागार्जुन ने कहा है- व्यवहारमाश्रित्य परमार्थो न देश्यते । परमार्थनागम्य निर्माणं नाधिगम्यते ॥ [मध्यमकमूल, २४११० श्रार्य ही परमार्थ गत्य की उपलब्धि करते हैं। इसमें उनकी संवित ही प्रमाण है ! सत्य-द्वय की व्यवस्था होने से तदधिकृत लोग भरी दो श्रेणी के है....१. योगी, २. प्राकृतिक | योग समाधि को कहते हैं। सब धर्मों का अनुपलभ अर्थात् सर्वधर्मशून्यता ही इस समाधि का लक्षण है। योगी तन्त्र को यथारूप देखता है। प्राकृतिक वह है जो प्रकृति अर्थात् अविद्या से श्रावत है। यह वस्तु-नत्व को विपरीत-भाव से देखता है ! प्राकृत ज्ञान भ्रान्त है । जिन रूपादिकों का स्वरूप सर्वजन-प्रतिपन्न है, वह भी योगियों की दृष्टि में स्वभाव-रहित है। यद्यपि वस्तुतत्व यही है कि सब भाव नि:स्वभाव है, तथापि दाना पारमिता का श्रादरपूर्वक अभ्यास करना चाहिये । अगापि दानादि वस्तुतः स्तुभान-रहित है तथापि परमार्थ-तत्व के अधिगम के लिए सब सत्वों पर करणा कर बोधिसत्व को इनका उपादान नितान्त प्रयोजनीय है। मार्गा- भ्यास करने से समलावस्था से निर्मलावस्था और सबिकल्पावस्था से निर्विकल्यावस्था उत्पन्न होती है। मध्यमकावतार [ ६५० ] में कहा है---- उपायभूतं व्यवहारमत्यमुपेयभूतं परमार्थसत्वर । अर्थात् व्यवहार-सत्य उपाय अथवा हेनुरूप है और परमार्थसल्य उपेय अथवा फलस्वरूप है। दानादिपारभिता-रूपी उपाय द्वारा परमार्थ-तत्त का लाभ है। बोधिसत्व की उत्कृष्टतम साधना प्रज्ञापारमिता की है। प्रशापारमिता' और 'धर्मधातु' पर्याय है । इनके श्रादर के लिये बौद्धग्रन्थों में प्रज्ञापारमिता तथा धर्मधातु के पूर्व भगवती और भावान् विशेषण लगाते हैं। किन्तु तल का यह अमिधान भी संवृत्ति-मत्य के उपादान से हो है (संवृति-शत्यमुपादायाभिधीयते; बोध० ५० पृ० ४२१)।