पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एकादश अध्याय २२३ बौद्धों के अनुसार श्रामा प्रज्ञप्तिमात्र है। जिस प्रकार 'रथ' नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, वह शब्दमात्र है; परमार्थ में अंग-संभार है । उसी प्रकार अात्मा, सत्य, चीव, नामरूप- मात्र (स्कन्ध-पंचक ) है । यह कोई अविपरिणामी शाश्वत पदार्थ नहीं है । बौद्ध अनीश्वरवादी और अनात्मवादी हैं । सर्वास्तिवादी सम्वभाववादी तथा बहुधर्मवादी है; किन्तु वह कोई शाश्वत पदार्थ नहीं मानते । उनके द्रव्य सत् है, किन्तु क्षणिक हैं । यह द्रव्य चैत्त और रूपी-धर्म हैं। बौद्ध- सिद्धान्त में किसी मूल कारण की व्यवस्था नहीं है । यह नहीं मानते कि ईश्वर महादेव या वासु- देव,पुरुष, प्रधानादिक किसी एक कारण से सर्व जगत् की प्रवृत्ति होती है । यदि भावों की उत्पत्ति एक कारण से होती तो सर्व जगत् की उत्पत्ति युगपत् होती; किन्तु हम देखते हैं कि भावों का क्रम संभव है। बौद्ध दर्शन चार हैं:--सर्वास्तिवाद ( वैभाषिक ), सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद ( योगाचार), और माध्यमिक (शून्यवाद)। सर्वास्तिवाद के अनुसार बाह्य-जगत् प्रत्यक्ष का विषय है । वह प्रकृति और मन की स्वतन्त्र सत्ता मानता है। प्रकृति की प्रत्यक्ष उपलब्धि मन से होती है। सौत्रान्तिक भी बाह्य-जगत् की सत्ता मानते हैं, किन्तु उनके अनुसार यह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । बा नम्नुत्रों के बिना पदार्थों का मन में अवभास नहीं होता, इसलिए, हम बाह्य वस्तुओं की सत्ता का अनुमान करते हैं। यह दोनों मतवाद बहुस्वभाववादी हैं। विज्ञानवाद के अनुसार ज्ञान के समस्त विपत्र मन के विकल्प हैं। इस वाद में धातुक को चित्त-मात्र व्यव- स्थापित किया है। इससे बाह्यार्थ का प्रतिषेध होता है। रूपादि अर्थ के बिना ही रूपादि विज्ञप्ति उत्पन्न होती है । यह विज्ञान ही है (चित्त, मनस् , विज्ञान और विज्ञप्ति पर्याय है ), जो अर्थ के रूप में अवभामित होता है। वस्तुतः अर्थ असत् है । यह वैसे ही हैं जैसे तिमिर का एक रोगी असत्-कल्प केश-चन्द्रादि का दर्शन करता है। अर्थ की सत्ता नहीं है । माध्यमिक ( शून्यवादी ) ग्राह्य-ग्राहक दोनों की सत्ता का प्रत्याख्यान करते हैं और इनके परे शून्य तक जाते हैं, जो ज्ञानातीत है। विज्ञानवादी दोनों को अयथार्थ मतवाद मानते हैं, और दोनों से व्यावृत्त होते हैं । सर्वास्तिवादी विज्ञान और विज्ञेय दोनों को द्रव्यसा मानते हैं। शून्यवादी विज्ञान और विशेय दोनों का परमार्थतः अस्तित्व नहीं मानते, केवल संवतितः मानते हैं। विज्ञानवादी केवल चित्त, विज्ञान को द्रव्यसत् मानते हैं, और जो विविध श्रात्मोपचार और धर्मो- पचार प्रचलित हैं, उनको वे मिथ्योपचार मानते हैं। उनके अनुसार परिकल्पित अात्मा और धर्म विज्ञान और विज्ञप्ति के परिणाममात्र हैं; चित्त-चैत्त एकमात्र वस्तु-सत् है । पूर्व इसके कि हम विविध दर्शनों का विस्तार पूर्वक वर्णन करें; हम उन वादों का व्याख्यान करना चाहते हैं जो सभी बौद्ध-प्रस्थानों को मान्य है। बौद्ध-दर्शन को समझने के लिए प्रतीत्यसमुत्पाद-वाद, क्षणभंग-वाद, अनीश्वर-दर तथा अनारम-वाद का संक्षिप्त परिचय श्रावश्यक है। अगले अध्याय में हम इनका वर्णन करेंगे और तदनन्तर कर्म-वाद एवं निर्वाण सम्बन्धी विभिन्न बौद्ध-सिद्धांतों का विवेचन करेंगे।