पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१२

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द्वादश अध्याय प्रतीत्यसमुत्पाद बाद यह हेतु-प्रत्ययता का वाद है। इसके होने पर, इस हेतु, इस प्रत्यय से; वह होता है । इसके उत्पाद से, उसका उत्पाद होता है । इसके न होने पर वह नहीं होता; इसके निरोध से वह निरुद्ध होता है; यह हेतु-फल-परम्परा है। इसको प्रत्ययाकार ( पच्चयाकार ) निदान भी कहते हैं। इस वाद का संबन्ध अनित्यता और अनात्मता के सिद्धान्त से भी है। कोई वस्तु शाश्वत नहीं है, सब धर्म क्षणिक हैं और हेतु-प्रत्यय-जनित हैं। स्थविर-वाद में हेतु' तीन दोष है-राग, द्वेष, मोह | ये चित्त की अवस्थानों को अभिसंस्कृत करते हैं । अतः ये अवस्थाएँ सहेतुक कहलाती है । इसके विपक्षभूत प्रत्यय (पञ्चय) धर्मों का विविध संबध । जो धर्म जिसकी उत्पत्ति में या निवृति में उपकारक होता है, वह उसका प्रत्यय कहलाता है। सर्वास्तिवाद में हेतु प्रधान कारण है और प्रत्यय उपकारक धर्म है, यथा बीज का भूमि में श्रारोपण होता है । बीज हेतु हैं, भूमि, उदक, तथा सूर्य प्रत्यय है; वृक्ष, फल है । स्थविरवाद में चौबीस प्रत्यय हैं और सर्वास्तिवाद में चार प्रत्यय, छः हेतु और पाँच फल हैं । कर्मवाद के साथ प्रतीत्यसमुत्पादका धनिष्ठ संबन्ध है। कर्म कर्मफल को भी कहते हैं, यथा कहते हैं कि उसका शुभ या अशुभ कर्म उसकी प्रतीक्षा करता है । पुण्य-अपुण्य के विपाक के संबंध में कर्म से हेतु-फल-व्यवस्था अभिप्रेत है । प्राचीन काल में स्थविरवादियों में कर्म और प्रतीत्यसमुत्पाद में भेद किया जाता था। फल की अभिनिर्वृति में कर्म केवल एक प्रकार का हेतु था। कर्म के अतिरिक्त दु.म्ब के उत्पाद में अन्य भी हेतु है । अभिधम्मस्थ-संगहो के अनुसार चित्त, आहार और ऋतु के अतिरिक्त कर्म भी रूप के चार प्रत्ययों में से एक है। अभिधर्मकोश में लोक-धातु के विवृत्त होने में मल्यों के कर्म-समुदाय को हेतु माना है। महा- यान के अनुसार लोक की उत्पत्ति कर्म से है । यह हेतुप्रत्ययवाद देश, काल और विषय के प्रति सामान्य है। असंख्य लोक-धातुओं को, देवलोकों को, और नरकों को यह हेतु-फल-संबन्ध-व्यवस्था लागू है। यह व्यवस्था त्रिकाल को भी लागू है। असंस्कृत धर्मों को छोड़ कर यह सर्व संस्कृत धर्मों पर भी लागू है । अतः भव-चक्र अनादि है । यदि अादि हो तो अादि का अहेतुकत्व मानना होगा और यदि किसी एक धर्म की उत्पत्ति अहेतुक होती है तो सब धर्मों की उत्पत्ति अहेतुक होगी। किन्तु देश और काल के प्रतिनियम से यह देखा जाता है कि बीन अंकुर का उत्पाद करता है, अग्नि पाकज का उत्पाद करती है । अत: कोई प्रादुर्भाव अहेतुक नहीं है । दूसरी और नित्य-