पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१५

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द्वादशमयाब वैभाषिक सिद्धान्त के अनुसार श्रावस्थिक इट है। किन्तु यदि प्रत्येक धर्म पंच-स्कन्ध का समूह है तो अविद्यादि प्रज्ञप्तियों का क्यों व्यवहार होता है ? अंगों का नाम-कीर्तन उस धर्म, के नाम से होता है, जिसका वहाँ प्राधान्य है । जिस अवस्था में अविद्या का प्राधान्य है, वह अविद्या कहलाती है । अन्य अंगों की भी इसी प्रकार योजना करनी चाहिये । यद्यपि सब अंगों का एक ही स्वभाव हो तथापि इस प्रकार विवेचन करने में कोई दोष नहीं है । प्रकरण कहते हैं कि प्रतीत्य-समुत्पाद सब संस्कृत धर्म है। फिर सूत्र में प्रतीत्यसमुत्पाद का लक्षण बारह अङ्गों की सन्तति के रूप में क्यों है ? सूत्र की देशना श्राभिप्रायिक है, और अभिधर्म में लक्षणों की देशना है। एक ओर प्रतीत्य-सत्पाद श्रावस्थिक, प्राकर्षिक, और सत्वाख्य है । दूसरी ओर वह क्षणिक, सांबन्धिक, सत्यासत्वाख्य है। सूत्र की देशना · सत्वाख्य प्रतीत्य-समुत्पाद की ही क्यों है ? पूर्वान्त, अपरान्त और मध्य के प्रति संमोह की विनिवृत्ति के लिए। इस हेतु से सूत्र त्रिकाण्ड में प्रतीत्य- समुत्पाद की देशना देता है । जब कोई पूछता है कि-"क्या मैं अतीत अध्व में था ? क्या मैं नहीं था ? मैं कैसे और कब था” ? यह पूर्वान्त का ममोह है । "क्या मैं अनागत श्रध्व में होऊँगा ..... ..." यह अपरान्त का संमोह है।" यह क्या है ? यह कैसे है । हम कौन हैं ? हम क्या होगें ? यह मध्य का संमोह है । यह त्रिविध संमोह अविद्या ..... जरा-मरण के यथा- क्रम उपदेश से विनष्ट होता है । यह द्वादशांग प्रतीत्यसमुत्पाद त्रिविध है:-लेश, कर्म और वस्तु । अविद्या, तृष्णा और उपादान ये तीन अंग अंश-स्वभाव हैं । संस्कार और भव कर्म-स्वभाव हैं । विज्ञान, नाम-रूप, पडायतन, स्पर्श, वेदना, जाति, जरा-मरण, वस्तु हैं। इनको वस्तु इसलिए कहते हैं, क्योंकि ये क्लेश और कर्म के आश्रय, अधिष्ठान हैं । प्रतीत्यसमुत्पाद द्विविध भी हैं:- हेतु और फल । जो अंग वस्तु है, वह फल भी है । शेष जो वस्तु नहीं है, हेतुभूत है । क्योंकि वह कम-जैश-स्वभाव है । विशुद्धिमार्ग [ ४१० ] में क्लेश, कर्म और वस्तु को तीन वर्म (= वट्ट ) कहा है:- क्लेश-वर्म, कर्म-दम, विषाक-वर्म । यहाँ तृतीय वर्म का लक्षण विपाक (= फल या वस्तु ) है । इस भवचक्र के तीन धर्म है। इसका पुनः पुनः प्रवर्तन होता रहता है। प्रत्युत्पन्न-मव के काण्ड में हेनु और फल का व्याख्यान विस्तार से क्यों है ? नेश के दो अंग, कर्म के दो अंग, और वस्तु के पाँच अंग । जब कि अतीत और अनागत अध्व के लिए ऐसा व्याख्यान नहीं है । अनागत अध्व के फल को संक्षिप्त किया है । इसके दो अंग हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्युत्पन्न-मन के लेश-कर्म और वस्तु के निरूपण से अतीत और अनागत अध्व के हेतु-फल का सम्पूर्ण निर्देश ज्ञापित होता है । अतः यह वर्णन निष्प्रयोजनीय है। किन्तु यह कहा जायगा कि यदि प्रतीत्य-समुत्पाद के केवल बारह अंग हैं तो संसरण की श्रादि कोटि होगी; क्योंकि अविद्या का हेतु निर्दिष्ट नहीं है। संसरण की अन्त कोटि होगी; क्योंकि जरा-मरण का फल निर्दिष्ट नहीं है । अत: नये अंग जोड़ना चाहिये । नहीं,