पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३२

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न अन्य । यदि यह स्कन्धों से अन्य होता तो यह शाश्वत और इसलिए, असंस्कृत होता; यदि यह स्कन्धों से अनन्य होता तो उसके उच्छेद का प्रसंग होता । वसुबन्धु का कहना है:- यदि अारमा समुदायमात्र है, भावान्तर नहीं, तो वह अात्मा नहीं है; और यदि वह सांख्यों के पुरुष के सदृश है, तो उसका कोई प्रयोजन नहीं है । वसुबन्धु पुनः कहते हैं कि यदि तुम्हारे पुद्गल का स्कन्धों से वही संबन्ध है, जो अग्नि का इन्धन से है, तो तुमको स्वीकार करना पड़ेगा कि वह क्षणिक है । वसुबन्धु प्रभ करते हैं कि पुद्गल का कैसे ज्ञान होता है ? वात्सीपुत्रीय कहता है कि पड्विज्ञान से उपलब्धि होती है । जब चक्षुर्विशान रूपकाय को जानता है, तो तदनन्तर ही वह पुद्गल की उपलब्धि करता है । इसलिए हम कह सकते हैं कि पुद्गल चतुर्विज्ञान से जाना जाता है, यथा--जब चतुर्विज्ञान हीर-रूप को जानता है, तो यह प्रथम रूप, गन्ध, रसादि की उपलब्धि करता है, और द्वितीय क्षण में तीर का उपलक्षण करता है । वसुबन्धु इमका उत्तर देते हैं कि इसका परिणाम यह निकलता है कि समस्त स्कन्ध-समुदाय की ही प्राप्ति पुद्गल है, जैसे---रूप-गन्धादि समस्त समुदाय की प्राप्ति क्षोर है। यह संज्ञामात्र है। यह वस्तुसत् नहीं है। वात्सीपुत्रीय स्वीकार करता है कि पुद्गल विज्ञान का पालभ्वन-प्रत्यय नहीं है । वसुबन्धु कहते हैं कि बहुत अच्छा ! किन्तु उस अवस्था में यदि यह ज्ञेय नहीं है, तो इसका अस्तित्व कैसे सिद्ध होगा । और यदि इसका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता तो आपका सिद्धान्त गिर जाता है। बमुबन्धु कहते हैं कि वेदना, संचा, विज्ञान, और चेतना यह चार अरूपी स्कन्ध है और रूप रूपी-स्कन्ध है । जब हम कहते हैं कि 'पुरुष' है, तो हम इन्हों की बात करते हैं। विविध सूक्ष्म भेदों को व्यक्त करने के लिए विविध शब्दों का व्यवहार होता है, जैसे—सत्व, नर, मनुज, जीव, जन्तु और पुद्गल । यह सब वैसे ही समुदायमात्र हैं, जैसे---सेना शन्द । यह केवल लोक-व्यवहार के वचनमात्र, प्रतिचामात्र हैं। सब ार्य यथार्थ देखते हैं कि केवल धर्मों का अस्तित्य है, किसी दूसरी वस्तु का अस्तित्व नहीं है । जब सूत्र आत्मा को रूपादि से समन्वागत बताता है, तो उसका अभिप्राय पुद्गल प्रति से है। जैसे लोक में राशि? बहु के समुदायमात्र को कहते हैं, जिसमें कोई एकत्व नहीं होता,अथवा जैसे जलधारा बहु-क्षण में समवाहित जल को कहते हैं, जिसमें नैरन्तर्य- मात्र है, नित्यता नहीं है । भगवान् कहते हैं—हे भिक्षुश्रो ! यह जानो कि सब ब्राह्मण-श्रमण्ड, वो श्रात्मा को मानते हैं, केवल उपादान-स्कन्ध को मानते हैं। इसलिए विपर्यास के कारण अनात्मधर्मों में श्रात्मा की कल्पना होती है, और आत्म-आह होता है । कोई अात्मा नहीं है । केवल हेतु-प्रत्यय से जनित धर्म है; स्कन्ध, आयतन और धातु हैं। वासीपुत्रीय कहते हैं कि फिर आप बुद्ध को सर्वज्ञ कैसे कहते हैं ? केवल श्रात्मा, पुद्गल में सर्वशता हो सकती है , क्योंकि चित्त-चैत्त सब धर्मों को नहीं जान सकते, वह विपरिणामी है, वह क्षण-क्षण पर उत्पन्न और निरुद्ध होते रहते हैं। वसुबन्धु इस आक्षेप की गुरुता का अनुभव करते है,और उत्तर देते है कि हम इस अर्थ में बुद्ध को सर्वश नहीं कहते कि वह एक ही काल में सब धर्मों को जानते हैं। बुद्ध शब्द से एक सन्तान-विशेष शापित होता है। इस सन्तति का यह सामर्य-विशेष है कि चित्त के आमोगमात्र से ही तत्काल उस अर्थ कोई सत्व,