पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८

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( PY) आवकों में किसी का दुःखनिरोध पुद्गल-नैरात्म्य के ज्ञान से और किसी-किसी का प्रतीत्य- समुत्पाद के शान से होता था। धर्म-नैरात्म्य का ज्ञान किसी धारक को नहीं होता था। इसी लिए उन्हें श्रेष्ठ निर्वाण का लाम नहीं होता था। फिर भी इतना तो सत्य है कि ये लोग अधःपात की आशंका से मुक्त हो जाते थे। क्योंकि जानाग्नि के द्वारा इनके क्लेश या अशुद्ध वासनात्मक-श्रावरण दग्ध हो जाते थे। इसलिए त्रिधातु में इनके जन्म लेने की संभावना नहीं रहती थी। ये जन्म-मृत्यु के प्रवाहरूप प्रेत्यभाव से मुक्त हो जाते थे। प्रत्येक-बुद्ध का श्रादर्श श्रावक से श्रेष्ठ है । यद्यपि इनका साधन-जीवन वैयक्तिक स्वार्थ से ही प्रेरित है, फिर भी अाधार अधिक शुद्ध है । अाधार-शुद्धि के कारण इन्हें स्वदुःखनिवृत्ति के उपाय या जान के लिए दूसरे से उपदेश प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती। ये लोग पूर्वभूतादि अभिसंस्कारों के द्वारा स्वयं ही बोधि-लाभ करते थे । बोधि-लाभ का फल बुद्धत्व की प्राप्ति है। योगशास्त्र जिसे अनौपदेशिक या प्रातिभ ज्ञान कहता है, उससे प्रत्येक- बुद्धों का शन प्रायः समान है। किसी अंश में यह विवेकोत्थ प्रातिभ ज्ञान का ही एक रूप है। यह लौकिक शान्द ज्ञान नहीं है। प्रत्येक-बुद्ध अपने बुद्धत्व के लिए प्रार्थी होते हैं, उसे प्राप्त भी करते हैं, किन्तु सर्व के बुद्धत्व के लिए उनकी प्रार्थना नहीं है। श्रावक तथा प्रत्येक बुद्ध के शान में भी भिन्नता है। श्रावकों का ज्ञान पुद्गल नैरात्म्य का अवबोध-रूप है, अतः पुद्गलवादियों के अगोचर है। प्रत्येक-बुद्धों का ज्ञान मृदु इन्द्रिय है, इसीलिए वह श्रावकों के भी अगोचर है । श्रावकों को क्लेशावरण नहीं होता, इसीलिए इनका शन सूक्ष्म है । प्रत्येक-बुद्ध में जेयावरण का एकदेश अर्थात् ग्राह्यावरण भी नहीं रहता, इसलिए वह और भी अधिक सूक्ष्म है । श्रावक का ज्ञान परोपदेशहेतुक है, अतः पोडशाकार से प्रभावित है। इसीलिए वह गंभीर है। परन्तु प्रत्येक-बुद्ध का ज्ञान स्वयंबोधरूप है और तन्मयतामात्र से उद्भूत हैं, अतः पूर्व से अधिक गंभीर है। एक बात और भी है। प्रत्येक बुद्ध का ग्राम-विकल्प परिहत है, अतः वह शब्द उच्चारण किये बिना ही धर्म का उपदेश देते हैं । प्रत्येक-बुद्ध अपने अधिगत ज्ञानादि के सामर्थ्य से दूसरों को कुशलादि में प्रवृत्त करते हैं । उनके साधन को इसीलिए. अति गंभीर कहा जाता है कि वह उच्चाररहित है, अतः दूसरे से उसका प्रतिघात संभव नहीं है। तीसरा सम्यक्-संबुद्ध का श्रादर्श है। यही श्रेष्ठ प्रादर्श है | इसका भी प्रकार भेद है। सम्यक्-संबुद्ध को ही बुद्ध भगवान् कहते हैं। यह अनुत्तर सम्यक् संबोधि प्राप्त है। इनका लक्ष्य अत्यन्त उदार है। कोटि-कोटि जन्मों की तपस्या और अशेष विश्व की कल्याण-मावना ही इसका मूलाधार है। क्लेशावरण तथा ज्ञेयावरण के निवृत्त होने से ही बुद्धत्व का लाभ नहीं हो पाता। यह ठीक है कि श्रावक का द्वैत-बोध नहीं छूटता और प्रत्येक-बुद्ध का भी देत बोध नहीं छूटता; केवल सम्यक्-संबुद्ध ही श्रदय-भूमि में प्रतिष्ठित होते हैं और दैत-माव से निवृत्त होते हैं । यह भी ठीक है कि ज्ञेयावरण के निवृत्त न होने पर प्रतिभाव का उदय नहीं होता । पतञ्जलि ने भी कहा है--"ज्ञानस्यानन्याञ् ज्ञेयमल्पम्", जान अनन्त होने से शेय