पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३

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( PE ) इस हो गया, जैसे सुना जाता है कि सांख्य 'कालाक' भक्षित हुआ था, और गीतोक योग दीर्घकाल से लुप्त हो गया था ( योगो नष्टः परन्तप)। बाद में कृष्ण ने गीतोक योग का पुनः प्रवर्तन किया । इसी प्रकार वज्रयान का भी प्रवाह विच्छिन्न हो गया था। यह ठीक है कि किसी किसी स्थान में यह विद्यमान था, इसका आमास मिलता है । किन्तु जन-चित्त पर उसका प्रभाव नहीं था। उत्तर काल में वा-यान वज्रयोग के रूप में प्रकट हुश्रा । उसके प्रवर्तक राबा सुचन्द्र ये। यह एक विशाल राज्य के स्वामी थे। इनकी राजधानी संमल-नगरी थी। यह सीता नदी के तट पर थी। कालतंत्र में इसका विवरण मिलता है। यह राजा सुचन्द्र वज्रपाणि बुद्ध के निर्माण-काय थे । इन्होंने ऊर्ध्व-लोक में जाकर संबुद्ध गौतम से अभिषेक-तत्व के संबन्ध में कुछ प्रश्न किये थे। उनके प्रश्न से प्रसन्न होकर गौतम ने श्रीधान्यकटक में एक सभा का प्रादान किया। जगत् में किसी नवीन मत के प्रचार के लिए प्रायः ऐसा ही हुआ करता है। इसके पहले एभ्रकूट पर्वत पर सभा हुई थी और उस समय मंत्रमार्ग का उपदेश हुआ था। अधिकार संपत्ति अच्छी न रहने से वज्रयान में प्रवेश नहीं होता। पारमितामय का साधन नीति तथा चर्या की शुद्धि पर प्रतिष्ठित हुश्रा या, किन्तु मंत्र-नय की साधना श्राध्यात्मिक योग्यता पर निर्भर थी। पारमिता-नय का विश्लेषण सौत्रान्तिक दृष्टि से होता है, किन्तु मंत्र-नय का व्याख्यान योगाचार तया माध्यमिक दृष्टि से ही हो सकता है । सौत्रान्तिक बालार्थ को अनुमेय मानते हैं, उनके मत में उसका कभी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । माध्यमिक विज्ञान को भी नहीं मानते। इसी से समझ में भाता है कि मंत्र-साधना का अधिकार प्राप्त करने के लिए दृष्टि का कितना प्रसार तथा उत्कर्ष होना चाहिये। मंत्र-यान का लक्ष्य वनयोग-सिदि है। जब तक साधक का आधार या क्षेत्र योग्य नहीं होता तब तक इसका साधन नहीं किया जा सकता । पूर्णता के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए यही योग श्रेष्ठ है। इस महामार्ग के चार स्तर हैं। एक एक स्तर में पूर्ण योग का एक एक रूप प्रावरणा से उन्मुक्त होता है। चारों स्तरों के साधन में पूर्णता-लाभ करने पर योग पूर्ण हो जाता है। प्रत्येक स्तर में योग-लाभ से पहले विमोच-लाभ करना पड़ता है । विमोक्ष-लाम का श्य कल्पनादिक से तथा आवर्जनाओं से मुक्त होना है। ध्यान से विमोक्ष की प्राति होती है, और विमोद से योग सिद्ध होता है। चार स्तरों के कारण विमोच भी चार प्रकार के है- शूत्यता, अनिमित्त, अप्रणिहित, और अनभिसंस्कार । प्रत्येक योग में विमोद के प्रमाव से एक एक शक्ति का विकास होता है, अर्थात् एक एक वज्रयोग से एक एक प्रकार की शक्ति पूर्ण होती है। शक्ति के पूर्ण विकास हो जाने पर वजमाव का उदय होता है। स्थूल दृष्टि से अपनी सत्ता का चार भागों में विभाग किया जाता है-काय, वाक्, चित्त और शान । प्रथम वायोग में 'कायवनमावः का उदय होता है। इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय तया चतुर्थ अवस्याओं का भी उदय होता है। जिसे कायका कहा गया है, वह एक दृष्टि से स्थूल जगत् की पूर्णता है। शेष तीन भी इसी प्रकार के हैं। ये चारों समष्टि रूप है।