पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

केवल मनुष्यों में इसका उत्पाद होता है। इसको संवादित भी कहते है। इसका प्रयोग संशा और वेदना के प्रतिकूल है। विभाषा कहती है कि वो निरोष में समापन होता है, उसे अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, उसे बल किन नहीं कर सकता, तुर उसे किन नहीं कर सकता, कोई उसका पात नहीं कर सकता। स्थविर वसुमित्र के अनुसार ये दो समापत्तियों और प्रासंशिक परिस्फुट मनोविज्ञानवरा सचित्तक । सौत्रान्तिक इनको द्रव्यता अवधारण नहीं करते। उनका कहना है कि यह समापत्ति- चित्त है :- वह चित्त को समापशि अवस्था के पूर्व का है, जो चित्तोत्पत्ति में प्रतिबन्ध है। यह चित्र चित्तान्तर के विरुद्ध है। इसके कारण कालान्तर के लिए अन्य चित्तों का उत्पाद नहीं होता। समापत्ति-चित्त के कारण चित्त-निरुद्ध श्राश्रय या सन्तान का श्रापादन होता है। जिसे समापत्ति कहते हैं, वह कालान्तर के लिए चित्त की प्रवृत्तिमात्र है। यह दो समा- पति और प्रासंशिक चित्तोत्पत्ति में प्रतिबंध नहीं है। यह द्रव्य-धर्म नहीं है, किन्तु एक प्रति-धर्म है । जीवितेन्द्रिय के पूर्व संस्कृत-धर्म के लक्षण को बताते हैं । संस्कृतधर्म के लक्षण चार मूब बक्षण-आति, जरा, स्थिति, मनिस्मता। ये चार धर्म के लक्षण हैं । चिस धर्म में ये लक्षण पाए जाते हैं, वे संस्कृत हैं। जिनमें यह नहीं पाए जाते, वे असंस्कृत है। बाति संस्कृतों का उत्पादन करती है। स्थिति उनकी स्थापना करती है। बरा उनका हास करती है । अनिस्यता उनका विनाश करती है। किन्तु सूत्र में उक्त है कि संस्कृत के तीन संस्कृत लक्षण हैं। संस्कृत का उत्पाद प्रशात होता है। व्यय भी प्रशात होता है। उसका स्थित्यन्ययात्व भी प्रशप्त होता है। जो लक्षण सूत्र में उक्त नहीं है, वह स्थिति है। स्थित्यन्य- भाव समासान्त पद में स्थिति' शब्द है, किन्तु यह पद जरा का पर्याय है । यदि सूत्र केवल सीन ही लक्षणों का निर्देश करता है, तो इसका कारण यह है कि विनयों में उद्वेग उत्पन्न करने के लिए यह उन्हीं धर्मों को संस्कृत का लक्षण निर्दिष्ट करता है, जिनके कारण ससत का श्रेयध्विक संचार होता है । इसके विपरीत 'स्थिति' संस्कृत की स्थापना करती है, और उसके अवस्थान में हेतु है । इसीलिए सूत्र लक्षणों में उसकी गणना नहीं करता । पुनः असंस्कृत का भी स्वलक्षण में स्थितिभाव होता है। स्थितिलक्षण असंस्कृत की इस स्थिति के सहश है। असंस्कृत का मी संस्कृताख प्रसंग न हो, इसलिए सूत्र स्थिति को संस्कृत का लक्ष्य नहीं निर्दिष्ट करता। सौत्रान्तिकों की यह कल्पना है कि सूत्र में स्थिति का निर्देश है। स्थिति और परा को यह एक साथ निर्दिष्ट करता है। स्थित्यन्यथात्व = स्थिति और अन्ययात्व । इनसे लक्षणों को एक लक्षण के रूप में कहने का प्रयोक्न है-यह स्थिति संगास्पद है। स्थिति में प्रासंग न हो, इसलिए स्त्र उसको बरा के साथ निर्दिष्ट करता है। अत: संस्कृत साबण चारही।