पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४४४

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बौद्ध-धर्म-दर्शन > प्रहण नहीं करता, तथापि यह भालजन है; क्योंकि-चाहे इसका ग्रहण प्रालंबन रूप में हो या न हो, इसका स्वभाव वही रहता है, यथा ---इन्धन इन्धन यद्यपि यह प्रदीप्त न हो। ७. अधिपति-प्रत्यय--प्रत्येक धर्म अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे धर्म को प्रभावित करता है । कारण-हेतु अधिपति-प्रत्यय कहलाता है । दो दृष्टियों से 'अधिपति-प्रत्यया संज्ञा युक्त है । अधि- पति-प्रत्यय वह प्रत्यय है, जो बहुधर्मों का है, और नो बहुधर्मों का पति है (अधिकोऽयं प्रत्ययः, अधिकस्य वा प्रत्ययः )। सर्व धर्म मनोविज्ञान के श्रालंबन-प्रत्यय है। किसी चित्त के सहभू-धर्म उस चित्त के सदा श्रालंबन नहीं होते, किन्तु वह उसके कारण-हेतु होते हैं । अतः कारण-हेतु होने से, न कि बालंबन-प्रत्यय होने से, सब धर्म अधिपति-प्रत्यय हैं। स्वभाव को वर्जित कर सब संस्कृत-धर्म सब धर्म के कारण हेतु है। कोई भी धर्म किसी भी नाम से स्वभाव का प्रत्यय नहीं होता। स्थविस्वाद के अनुसार अधिपत्ति 'ज्येष्ठ' के अर्थ में है । जिस जिस धर्म के गुरुभाव से जिन जिन श्ररूप धर्मों की प्रवृत्ति होती है, वह वह धर्म उन उन धर्मों के अधिति-प्रत्यय हैं। जब छन्द को श्रागे करके चित्त प्रवृत्त होता है, तब छन्द अधिपति होता है, अन्य चैतसिक नहीं। छन्द, वीर्य, चित्त, मीमांसा संख्यात चार धर्म, अधि- पति-प्रत्यय है । इस प्रकार हम देखेंगे कि इन दो श्रों में बड़ा अन्तर है। प्रत्वपों का मध्यगत एवं धर्मतग कास्त्रि अश्वगत-प्रत्युत्पन्न, अतीत, अनागत इनमें से किस अवस्था में वे धर्म अवस्थान करते हैं, जिनके प्रति विविध प्रत्यय अपना कारित्र करते हैं ? हम पहले हेतु-प्रत्यय की समीक्षा करते हैं। प्रत्युत्पन्न धर्म में दो हेतु कारित्र करते हैं । यह सहभू-हेतु और संप्रयुक्त-हेतु हैं । ये सहोत्पन्न धर्म में अपना कारित्र करते हैं । अनागत धर्म में तीन हेतु–सभाग', सर्वत्रग', विपाक • कारित्र करते हैं । समनन्तर' अनागत धर्म में अपना कारित करता है, यथा-~अनागत धर्म में तीन हेतु अपना कारित्र करते हैं। एक क्षण के चित्त-चैत्त उत्पन्न चित्त-चैत्तों को श्रव- काश देते हैं। श्रालंबन-प्रत्यय प्रत्युत्पन्न धर्म में अपना कारित करता है, यथा-प्रत्युत्पन्न धर्म में दो हेतु कारित्र करते है। ये प्रत्युत्पन्न धर्म वित्त-चैस है। ये बालंबक है, जो वर्तमान हो वर्तमान श्रालंबन का ग्रहण करते हैं | अधिपति-प्रत्यय का कारित्र केवल इतना है कि यह अनावरण- भाव से श्रवस्थान करता है । यह वर्तमान, अतीत, अनागत धर्म में श्रावरण नहीं करता। धर्मगत विविध प्रकार के धर्म कितने प्रत्ययों के कारण उत्पन्न होते हैं। चित्त और चैस चार प्रत्ययों से उत्पन्न होते हैं। इसमें एक अपवाद है। असशि- समापत्ति और निरोध-समामत्ति में श्रालंबन का ज्ञान नहीं होता। अतः इन इन समारत्तियों में बालंबन-प्रत्यय को वर्जित करना चाहिये। इन दो समापत्तियों की उत्पत्ति चित्ताभिसंस्कार से होती है, अतः इनका समनन्तर-प्रत्यय है। यह समापत्ति चित्तोत्पत्ति में प्रतिबन्ध है । श्रता ये व्युन्यान-नित्त के राममन्तर-प्रत्यय नहीं है, यद्यपि ये उसके निस्तर है ।