पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४४३

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पंचवा अध्याय त्पाद के उपादन में समर्थ धर्म समनन्तर-प्रत्यय है। प्रत्येक चैतसिक कलाप की स्थिति एक क्षण की होती । जब यह कलाप निरुद्ध होता है, तब अन्य उसके स्थान में उत्पन्न होता है । पूर्व कलाप उत्तर कलाए के कारित्र को अभिसंस्कृत करता है, अर्थात् उसके आकार को निश्चित करता है। किन्तु यह उसका हेतु-प्रत्यय नहीं है, क्योंकि उत्तर कलाप का समुत्थान क्लेश-कर्मवश होता है। अतः नये कलाप का हेत-प्रत्यय कर्म या अनुशय है, और पूर्ववर्ती कलाप उसका समनन्तर-प्रत्यय है। चित्त-प्रवाह के उत्तरोत्तर चित्तों में अधिक समानता और श्रानन्तर्य होता है, रूपी धर्मों में नहीं। अतः रूपी धर्म समनन्तर-प्रत्यय नहीं होते। वस्तुतः कामावचर-रूप के अनन्तर कदाचित् दो रूप कामावचर-रूप, ओर रूपावचर-रूप उत्पन्न होते हैं। कदाचित् कामावचर और अनासव ये दो रूप उत्पन्न होते हैं, किन्तु कामावचर-चित्त के अनन्तर कामावचर और रूपावचर चित्त कभी युगपत् नहीं उत्पन्न होते। रूपों का मभुग्त्रीभाव अाकुल है, किन्तु समनन्तर-प्रत्यय प्राकुल-पल नहीं प्रदान करता। अतः रूपी धर्म समनन्तर-प्रत्यय नहीं है। सामान्यतः पूर्व चैत्त केवल स्वजाति के चैत्तों के नहीं, किन्तु अपर चैत्तों के भी समनन्तर- प्रत्यय है; किन्तु स्वजाति में अल्प से बहुतर की, और विपर्यय से बहुतर से अल्प की उत्पत्ति नहीं होती । यह समनन्तरः सम और अनन्तर इस शब्द को युक्त सिद्ध करता है। रूपी धर्मों के समान चित्त-विधयुक्त-संस्कारों का व्याकुल संमुखीमाव है, अतः वह सम- नन्तर प्रत्यय नहीं है। वस्तुतः कामावर प्राप्ति के अनन्तर धातुक ओर अप्रतिसंयुक्त ( अना- सवादि) धर्मों की प्राप्तियों का युगपत् संमुखीभाव होता है। अनागत धर्मों के समनन्तर-प्रत्य- यत्व का प्रतिषेध करते हैं । अनागत धर्म व्याकुल है। अनागत अश्व में पूर्वोत्तर का अभाव है, अतः भगवान् कैसे जानते हैं कि अमुक अनागत धर्म की पूर्वोत्पत्ति होगी, अमुक को पश्चात् होगी। यत्किचित् यावन् अपरान्त उत्पन्न होता है, उन सबके उत्पत्ति के क्रम को वह जानते हैं। बुद्ध-गुण और बुद्ध गोचर अज्ञेय है । सौत्रान्तिकों के अनुसार भगवान् सर्व वस्तु को अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्यक्षतः-न कि अनुमानतः, या निमिनत--जानते हैं । दूसरे कहते हैं कि अतीत और साम्प्रत के अनुमान से उनका ज्ञान होता है। अन्य प्राचार्यों के अनुसार सत्यों को सन्तान में अनागत में उसन्न होने वाले फलों का एक चिह्न-भूत (लिंग) धर्म होता है, वह चित्त-विप्रयुक्त-संस्कार विशेष है। भगवान् उसका ध्यान करते है, और अनागत-फल को जानते हैं। १. प्रासंबन-प्रत्यय-प्रालंबन भाव से उपकारक धर्म श्रालंबन-प्रत्यय है । सब धर्म, संस्कृत और असंस्कृत, चित्त-चैत्त के श्रालंबन-प्रत्य है, किन्तु अनियत रूप से नहीं । यथा-सब रूप चतुर्विज्ञान और तसंप्रयुक्त वेदनादि चैत के श्रालंबन है । शन्द श्रोत्र-विज्ञान का बालचन है। सब धर्म मनोविज्ञान और तत्संप्रयुक्त चेत्त श्रालंबन है। जब एक धर्म एक चित्त का श्रालंबन होता है, तो ऐसा नहीं होता कि यह धर्म किसी चय में इस चित्त का श्रालंबन न हो । अर्थात्-यद्यपि चतुर्विज्ञान रूप को प्रालंबन रूप में